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________________ (६३२) अर्थः--इस मनुष्यभवमें साधुने तथा श्रावकने भी पंचविध आचारकी शुद्धि करनेवाला प्रतिक्रमण गुरुके साथ या गुरुका योग न हो तो अकेलेही करना चाहिये ॥१॥ वंदित्तु चेइयाई, दाउं चउराइए खमासमणे ॥ भूनिहिआसिरो सयला-इआरमिच्छोक्कडं देइ ॥२॥ अर्थः-चैत्यको वन्दन कर,चार खमासमण दे भूमि पर मस्तक रख सर्व आतिचारका मिच्छादुक्कड देना ॥२॥ सामाइअपुव्वमिच्छा-- मिठाइउं काउसग्गमिच्चाइ ॥ सुत्तं भणिअ पलंबिअ-भुअ कुप्परधरिअपहिरणओ॥३॥ घोडगमाईदोसे--हिं विराह तो करेइ उस्सग्गं । नाहिअहो जाणुहूं, चउरंगुलठइअकडिपट्टो ॥ ४ ॥ अर्थः-सामायिक सूत्र कथन कर "इच्छामि ठामि काउस्सग्गं" इत्यादि सूत्र बोलना और पश्चात् भुजाएं लंबी कर तथा कोहनीसे चोलपट्ट धारण कर रजोहरण, या चरवला और मुहपनि हाथमें रखकर घोडगआदि दोष टालकर काउस्सग करे. उस समय पहिरा हुआ वस्त्र नाभिसे नीचे और घुटनोंसे चार अंगुल ऊंचा होना चाहिये. ॥ ३-४॥ तत्थ य धरेइ हिअए, जहक्कम दिणकए अईआरे ॥ पारेत्तु णमोकारे--ण पढइ चवीसथयदंड ॥ ५ ॥ अर्थः- काउस्सग्ग करते वखत मनमें दिनभरके किये हुए अतिचारोंका चितवन करना. पश्चात् नवकारसे काउस्सग्ग पारकर लोगस्स कहना. ॥५॥
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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