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________________ (६२७) विहार करने पर, रात्रिमें निद्राके अंतमें तथा स्वप्न देखनेके बाद, इसी तरह नावमें बैठना पडे तो तथा नदी उतरना पडे तो इरियावही करना, ऐसा वचन है। दूसरे श्रावकको साधुकी भांति इरियावहीमें काउस्सग्ग व चोवीसत्थो जैसे कहे हैं, उसी प्रकार साधुकी भांति प्रतिक्रमण भी क्यों नहीं कहा जाता? इसके अतिरिक्त श्रावकने साधुका योग न होवे तो चैत्य तत्संबंधी पाषधशालामे अथवा अपने घरमें सामायिक तथा आवश्यक (प्रतिक्रमण ) करना । इस प्रकार आवश्यकचूर्णिमें भी सामायिकसे आवश्यक पृथक् कहा है। वैसे ही सामायिकका काल भी नियमित नहीं । कारण कि, "जहां विश्रांति ले, अथवा निर्व्यापार बैठे, वहां सर्वत्र सामायिक करना" व " जब अवसर मिले तब सामायिक करना।" इसमें कुछ भी बाधा नहीं होती, ऐसे चूर्णिके प्रमाणभूत वचन हैं। अब “सामाइअमुभयसंझं" ऐसा जो वचन है, वह सामायिक प्रतिमाकी अपेक्षासे कहा है। कारण कि, वहीं सामायिकका नियमित काल सुनने में आता है। अनुयोगद्वारसूत्र में तो श्रावकको प्रतिक्रमण स्पष्ट कहा है, यथाः-साधु, साध्वी, श्रावक तथा श्राविका ये सब अपने चित्त, मन, लेश्या, सामान्य अध्यवसाय, तीव्र अध्यवसाय तथा इंद्रियां भी आवश्यक ही में तल्लीन कर तथा अर्थ पर भली भांति ध्यान रख कर आवश्यक ही की भावना करते प्रातःकाल तथा संध्याको आवश्यक करे ।
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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