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________________ (४७१) कोई पुरुष सिद्धान्तमें कहे हुए लक्षणयुक्त श्रमण माहण (धर्माचार्य ) से जो धर्म संबंधी श्रेष्ठ एक ही वचन सुनकर, उसका मनमें यथोचित विचारकर अंतसमये मृत्युको प्राप्त होकर किसी देवलोकमें देवता होजावे । पश्चात् वह देवता अपने पूर्वोक्त धर्माचार्यको जो दुर्भिक्षवाले देशमेंसे सुभिक्षदेशमें ला रखे, घोरजंगलमेंसे पार उतारे, अथवा किसी जीर्णरोगसे पीडित उक्त धर्माचार्यको निरोग करे तो भी उससे उनका बदला नहीं दिया जा सकता ! परन्तु वह पुरुष केवलिभाषितधर्मसे भ्रष्ट हुए अपने उस धर्माचार्यको केवलिभाषित धर्म कह, समझाकर, अंतर्भेद सहित प्ररूपणा करके पुनः धर्ममें स्थापित करे तभी धर्माचार्यके उपकारका बदला दिया जा सकता है। मातापिताकी सेवा करने पर, अपने अंधे मातापिताको कावडमें बैठाकर स्वयं कंधेपर उठा उनको तीर्थयात्रा कराने. वाला श्रवण उत्कृष्ट उदाहरण है। मातापिताको केवलिभाषितधर्ममें स्थापन करनेके ऊपर अपने पिताजीको दीक्षा देनेवाले श्रीआर्यरक्षितसूरिका अथवा केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी मावापको प्रतिबोध हो वहां तक निरवद्यवृत्तिसे घरमें रहे हुए कूर्मापुत्रका दृष्टान्त जानो । अपने सेठको धर्ममें स्थापन करनेके ऊपर प्रथम किसी मिथ्यात्वी श्रेष्ठीके मुनीमपणेसे स्वयं धनिक हुआ और समयान्तरसे दुर्भाग्यवश दारिद्यको प्राप्त हुए उस मिथ्यात्वी श्रेष्ठीको धनादिक दे पुनः उसे
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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