SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 493
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (४७०) पन्नत्ते धम्मे आघवइत्ता जाव ठावइत्ता भवइ तेणामेव तस्स भट्टिस्स सुप्पडियारं भवड २॥ कोई धनाढ्य पुरुष किसी दरिद्रीमनुष्यको धनादि देकर सुदशामें लावे, और वह मनुष्य सुदशामें आया, उस समयकी भांति उसके बाद भी सुखपूर्वक रहे, पश्चात् उक्त धनाढ्य किसी समय स्वयं दरिद्री होकर उसके पास आवे, तब वह अपने उस स्वामीको चाहे सर्वस्व अर्पण करदे, तो भी वह उसके उपकारका बदला नहीं चुका सकता । परन्तु यदि वह अपने स्वामीको केवलिभाषित धर्म कह समझाकर और अंतर्भेद सहितकी प्ररूपणा कर उस धर्ममें स्थापन करे, तभी वह स्वार्माके उपकारका बदला चुका सकता है। केइ तहारूवस्स समणस्त वा माहणस्स वा अंतिए एमवि आरिअं धम्मि सुवयणं सुच्चा निसम्म कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववण्णे ॥ तए णं से देवे तं धम्मायरियं दुभिक्खाओ वा देसाओ सुभिक्खं देसं साहरिज्जा, कंताराओ निकं. तारं करिज्जा, दीहकालिएणं वा रोगायकेण अभिभूअं विमोइज्जा, तेणावि तस्स धम्मायरियस्स दुप्पडियारं भवइ । अहे णं से तं धम्मायरिअं केवलिपन्नत्ताओ धम्माओ भट्ट समाणं भुज्जो केवलिपन्नत्ते धम्मे आघवत्ता जाव ठावइत्ता भवइ तेणामेव तस्स धम्मायरियस्ल सुप्पडियारं भवइ ३॥
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy