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________________ (४३६) उच्चैर्मनोरथाः कार्याः, सर्वदैव मन स्वना । विधिस्तदनुमानेन, संपदे यतते यतः ॥१॥ विचारवान पुरुषने नित्य बडे २ मनोरथ करना चाहिये । कारण कि, अपना भाग्य मनोरथके अनुसार कार्यसिद्धि करनेमें प्रयत्न करता है। धन, काम और यशकी प्राप्तिके लिये किया हुआ यत्न भी समय पर निष्फल होजाता है, परन्तु धर्मकृत्य करनेका केवल मनमें किया हुआ संकल्प भी निष्फल नहीं जाता। लाभ होनेपर पूर्व किये हुए मनोरथ लाभके अनुसार सफल करना. कहा है कि ववसायफलं बिहवो, विवहस्स फलं सुपत्तविणिओगो । तयभावे ववसाओ, विहवोवि अ दुगाइनिमित्तं ॥१॥ उद्यमका फल लक्ष्मी है, और लक्ष्मीका फल सुपात्रको दान देना है. इसलिये जो सुपात्रको दान न करे तो उद्यम और लक्ष्मी दोनों दुर्गतिके कारण होते हैं। सुपात्रको दान देने ही से, उपार्जित की हुई लक्ष्मी धर्मकी ऋद्धि कहलाती है, अन्यथा पापकी ऋद्धि कहलाती है. कहा है किऋद्धि तीन प्रकारकी है. एक धर्मऋद्धि, दूसरी भोगऋद्धि और तीसरी पापऋद्धि. जो धर्मकृत्यमें वपराती है वह धर्मऋद्धि, जो शरीरसुखके हेतु वापरी जाती है वह भोगऋद्धि, और जो दान तथा भोगके काममें नहीं आती वह
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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