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भूमि, वृक्षका अग्रभाग, पर्वतका सिर, नदी तथा कुएका किनारा और जहां भस्म, कोयला, बाल और खोपडियां पडी
इतने स्थानों में अधिक समय तक खंडे न रहना । अधिक परिश्रम होनेपर भी जिस समय जो कार्य करना हो, उसे न छोडना । क्लेशके वश हुआ मनुष्य पुरुषार्थके फल स्वरूप धर्म अर्थ व काम तीनोंको नहीं पा सकता ।
मनुष्य जरा आडम्बर रहित हुआ कि उसका जहां तहां अनादर होता है, इसलिये किसी भी स्थानमें विशेष आडम्बर नहीं छोडना । परदेशमें जाने पर अपनी योग्यताके अनुसार सर्वांग में विशेष आडम्बर तथा स्वधर्म में परिपूर्ण निष्ठा रखना । कारण कि उसीसे बड़प्पन, आदर तथा निश्चित कार्य की सिद्धिआदि होना संभव है । विशेषलाभ होने पर भी परदेश में अधिक समय तक नहीं रहना, कारण कि, उससे काष्ठश्रेष्ठि आदिककी भांति गृहकार्यकी अव्यवस्थादि दोष उत्पन्न होता है । लेने बेचने आदि कार्यके आरंभ में, विघ्नका नाश और इच्छित - लाभआदि कार्यकी सिद्धिके निमित्त पंचपरमेष्ठीका स्मरण करना, गौतमादिकका नाम लेना तथा कुछ वस्तुएं देव, गुरु और ज्ञान आदिके काम में आवे इस रीतिसे रखना । कारणकि, धर्मकी प्रधानता रखने ही से सर्व कार्य सफल होते हैं । धनोपार्जन के हेतु जिसे आरम्भ समारम्भ करना पडे उस श्रावकने सातक्षेत्र में धन वापरनेके तथा अन्य ऐसे ही धर्म -- कृत्योंके बडे २ मनोरथ करना । कहा है कि