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________________ (४११) त्रिपुष्कर, पंचपुष्कर आदि संज्ञा कह पुत्रको गाली देनेके बहानेसे खोटे तौलमापद्वारा लोगोंको ठगा करता था. उसके चौथे पुत्रकी स्त्री बहुत समझदार थी. उसने यह बात ज्ञात होने पर एक बार श्रेष्ठीको बहुत ठपका दिया. तब श्रेष्ठीने कहा कि, " क्या करें ? ऐसा न करें तो निर्वाह कैसे होवे ? कहा है कि भूखा मनुष्य कौनसा पाप नहीं करता ? " यह सुन पुत्रवधूने कहा कि, " हे तात ! ऐसा न काहये. कारण कि, व्यवहार शुद्ध रखने ही में सर्व लाभ रहता है. कहा है कि-- धम्मत्थिआण दव्वत्थिआण नाएण वट्टमाणाणं । धम्मा दव्वं सव्यं संपज्जइ नन्नहा कहवि ॥१॥" लक्ष्मीके अर्थी सुपुरुष धर्म तथा नीतिके अनुसार चलें तो उनके समस्त कार्य धर्म ही से सिद्ध होते हैं.धर्मके बिना किसी प्रकार भी कार्यसिद्धि नहीं होती. इसलिये हे तात ! परीक्षार्थ छः मास तक शुद्ध व्यवहार करिये. उससे धनकी वृद्धि होगी. और इतने समयमें प्रतीति आवे तो आगे भी वैसा ही करिये." पुत्रवधूके वचनानुसार श्रेष्ठीने वैसाही करना प्रारम्भ किया. अनुक्रमसे ग्राहक बहुत आने लगे, आजीविका सुखसे हुई, और चार तोला सोना भी पासमें होगया. पश्चात् "न्यायोपार्जित द्रव्य खो जाने पर भी पुनः मिल जाता है." इस बातकी परीक्षा करनेके हेतु पुत्रवधूके वचनसे श्रेष्ठीने उक्त चार तोला सुवर्ण पर लोहा मढाकर उसका अपने नामका एक बाट
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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