SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 412
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३.८९ ) विरति पाये हुए हैं, ऐसे धन्य महामुनिजन शुद्ध आहार ग्रहण करते हैं । न देखा हुआ तथा न परखा हुआ किराना ग्रहण न करना. तथा जिसमें लाभ हानिकी शंका हो, अथवा जिसमें अन्य बहुतसी वस्तुएं मिली हुई हों ऐसा किराना बहुत से: व्यापारियों के हिस्से से लेना, ताकि कभी हानि होवे तो सबको : समानभाग से होवे. कहा है कि - व्यापारी पुरुष व्यापारमें धन प्राप्त करना चाहता हो तो उसने किराने देखे बिना बयाना ( स्वीकृति के रूप में कुछ द्रव्य अग्रिम देना ) न देना और यदि देना हो तो अन्य व्यापारियोंके साथ देना. क्षेत्रसे तो जहां स्वचक्र, परचक्र, रुग्णावस्था और व्यसनआदिका उपद्रव न होवे, तथा धर्मकी सर्व सामग्री हो, उस क्षेत्र में व्यापार करना, अन्यथा बहुत लाभ होता हो तो भी न करना । कालसे तो बारह मासमें आनेवाली तीन अड्डाइयां, पर्वतिथि व्यापार में छोडना, और वर्षादिऋतुके लिये जिन २ व्यापारोका सिद्धान्तमें निषेध किया है, वे व्यापार भी त्यागना. किस ऋतु में कोनसा व्यापार न करना यह इसी ग्रंथ में कहा जावेगा । भावसे तो व्यापारके बहुत भेद हैं, यथा:- क्षत्रियजातिके व्यापारी तथा राजाआदिके साथ थोडा व्यवहार किया हो तो भी प्रायः लाभ नहीं होता । अपने हाथसे दिया हुआ द्रव्य भी मांगते जिन लोगों का डर रहता है, ऐसे शस्त्र - धारीआदि लोगों के साथ थोडा व्यवहार करने पर भी लाभ
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy