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________________ (३८८) है । व्यापारके व्यवहारकी शुद्धि द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन भेदोंसे चार प्रकार की है, जिसमें द्रव्यसे तो पन्द्रह कर्मादानआदिका कारण भूत किराना सर्वथा त्यागना. कहा है कि-- धर्मबाधकरं यच्च, यच्च स्यादयशस्करम् । भूरिलाभमपि प्राचं, पण्यं पुण्यार्थिभिन त्त् ॥१॥ धर्मको पीडा करनेवाला तथा लोकमें अपयश उत्पन्न करने वाला किराना विशेष लाभ होता होवे तो भी पुण्यार्थी लोगोंने ग्रहण न करना चाहिये. तैयार हुए वस्त्र, सूत, नाणा, सुवर्ण और चांदी आदि व्यापारकी वस्तुएं प्रायः निर्दोष होती हैं. व्यापारमें सदैव ऐसा बर्ताव रखना चाहिये कि जिससे आरम्भ कम होवे. दुर्भिक्षआदिके समय अन्य किसी रीतिसे निर्वाह न होता हो, तो विशेष आरम्भसे होवे ऐसा व्यापार तथा खरकर्मआदि भी करे. तथापि खरकर्म करनेकी इच्छा मनमें न रखना चाहिये, प्रसंग वश करना पड़े तो अपनी आत्मा व गुरुकी साक्षीसे उसकी निन्दा करनी चाहिये, तथा मनमें लज्जा रखकर ही वैसे कार्य करना. सिद्धान्तमें भावश्रावकके लक्षणमें कहा है कि-सुश्रावक तीव्र आरम्भ वर्जे, और उसके बिना निर्वाह न होता हो, तो मनमें वैसे आरम्भकी इच्छा न रख, केवल निर्वाहके हेतु ही तीव्र आरम्भ करे; परन्तु आरम्भ परिग्रह रहित धन्य जीवोंकी स्तुति करना. तथा सर्वजीवों पर दयाभाव रखना. जो मनसे भी किसी जीवको कष्ट नहीं पहुंचाते और जो आरम्भके पापसे
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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