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________________ (३०९) भक्खंतो जिण इव्वं, अणंतसंसारिओ होइ ॥ ५ ॥ जिणपवयणवुद्धिकरं, पभावगं नाणदंसणगुणाणं । रक्खंतो जिणदव्वं, परित्तसंसारिओ होइ ॥ ६ ॥ जिणपवयणवुद्धिकरं, पभावगं नाणदंसणगुणाणं । वुटुं तो जिणदव्वं, तित्थयरत्तं लहइ जीवो ॥७॥ चैत्यद्रब्यका भक्षणादिकसे नाश करना, चारित्री मुनिराजका घात करना, प्रवचनका उड्डाह करना और साध्वीके च. तुर्थव्रतका भंग करना इत्यादि कृत्य करनेवाला समकितके लाभरूप वृक्षकी जडमें अग्नि डालता है । यहां विनाशशब्दसे चैत्यद्रव्यका भक्षण व उपेक्षा समझना । श्रावकदिनकृत्य, दशनशुद्धि इत्यादि ग्रंथोंमें कहा है कि--जो मूढमति श्रावक चैत्यद्रव्यका अथवा साधारणद्रव्यका भक्षणादिकसे विनाश करे, उसे धर्मतत्त्वका ज्ञान नहीं होता, अथवा वह नरकगतिका आयुष्य बांधता है । चैत्यद्रव्य प्रसिद्ध है। वैसे ही श्रीमान् श्रावकोंने नया मंदिर कराना या पुराणा मंदिरका उद्धार करवाना, पुस्तकें लिखवाना, दुर्दशामें आये हुए श्रावकोंको सहायता करना इत्यादि साधारण धर्मकृत्य करनेके लिये दिया हुआ द्रव्य, साधारणद्रव्य कहलाता है । नया ( नकद आया हुआ) द्रव्य और मंदिरके काममें लेकर पीछी उखाड कर रखी हुई ईटें, लकडियां, पत्थर आदि वस्तु ऐसे दो प्रकारके चैत्यद्रव्यका । नाश होता हो, और जो उसकी साधु उपेक्षा करे तो उसे भी
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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