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________________ (२९१) ही प्रसन्न था. इतनमें एक देव प्रकट होकर उससे कहने लगा "अरे सत्पुरुष ! बहुत श्रेष्ठ ! बहुत श्रेष्ठ ! तूने असाध्य कार्य साधन किया. अहा, कितना धैर्य ! अपने जीवनकी अपेक्षा न रखते ग्रहण किये हुए नियम ही में तेरी दृढता अनुपम है. शकेन्द्रने तेरी प्रकट प्रशंसा करी वह योग्य है. वह बात मुझसे सहन न हुई, इसीसे मैंने यहां वनमें लाकर तेरी धर्म मर्यादाकी परीक्षा की. ''हे सुजान ! तेरी दृढतासे मैं प्रसन्न हुआ हूं, अतएव मुखमें से एक वचन निकाल कर इष्ट वरदान मांग." देवताका यह वचन सुन धर्मदत्तने विचार करके कहा कि, " हे देव ! मैं जब तेरा स्मरण करूं तब तू मेरा कार्य करना. पश्चात् वह देव " यह धर्मदत्त अद्भुत भाग्यका निधि है. कारण कि, इसने मुझे इस तरह बिलकुल वशमें कर लिया." ऐसा सोचता हुआ धर्मदत्तका वचन अंगीकार कर उसी समय वहांसे चला गया. तदनन्तर धर्मदत्त “अब मुझे मेरा स्थानादि कैसे मिलेगा ?" इस विचारमें था, कि इतनेमें उसने अपने आपको अपने ही महलमें देखा. तब उसने विचार किया कि अभी मैंने देवताका स्मरण नहीं किया था, तो भी उसने अपनी शक्तिसे मुझे अपने स्थानको पहुंचा दिया। प्रसन्न हुए देवताको इतनासा कार्य करना क्या कठिन है ? । धर्मदत्तके मिलाप होनेसे उसके माता, पिता, कुटुम्बी, नौकर चाकर आदिको बहुत ही आनंद हुआ, पुण्यकी महिमा
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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