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________________ (२९०) अपना अलौकिक वेग आकाशमें भी दिखाने के निमित्त अथवा इन्द्र के अश्वको मिलनेकी उत्सुकतासे ही वह अश्व एकदम आकाशमें उडगया. व क्षणमात्रमें अदृश्य होगया तथा हजारों योजन पार कर, धर्मदत्तको एक विकट जंगलमें पटक वह कहीं भाग गया. सपके फूंकारसे, बन्दरकी बुत्कारसे (घुडकीसे), सूअर की धुत्कारसे चीतेकी चित्कारसे चमरी गायके भांकारसे, रोझके बादकारसे व दुष्टशियालियोंके फेत्कारसे बहुत ही भयंकर वनमें भी स्वभाव ही से निडर धर्मदत्तको लेशमात्र भी भय न हुआ. सत्य है, सत्पुरुष विपत्तिकालमें बहुत ही धैर्य रखते हैं, व संपदा आनेपर बिलकुल अहंकार नहीं रखते, वह गजेन्द्रकी भांति उस वनमें यथेच्छ फिरता हुआ, शून्यवनमें भी मनको शून्य न रखते, जैसे अपने राज-मंदिर में रहता था, वैसे ही स्वस्थतासे वहां रहा. परन्तु जिन-प्रतिमाका योग मात्र न मिलनेसे वह दुःखी हुआ, तथापि शान्ति रख उस दिन फलआदि वस्तु भी न खाकर उसने पापका नाश करनेवाला निर्जल उपवास (चौविहार उपवास ) किया. शीतल जल व नाना भांतिके फल होने पर भी क्षुधा, तृषासे अत्यन्त पीडित धर्मदत्तको इसी प्रकार तीन उपवास होगये । अपने ग्रहण किये हुए नियम सहित धर्ममें यह कैसी आश्चर्य कारक दृढता है ! लू लगनेसे अत्यन्त मुरझाई हुई पुष्पमालाके समान धर्मदत्तका सर्वांग मुरझा गया था तथापि धर्ममें दृढता होनेसे उसका मन बहुत
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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