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कहा जाता है, इसीलिये बनवाससे आनेपर रामचन्द्रजीने महाजनसे अन्नकी कुशल पूछी थी । कलहका अभाव और प्रीतिआदि परस्पर भोजन करानेसे दृढ होते हैं. विशेष कर देवता भी नैवेद्य ही से प्रसन्न होते हैं । सुनते हैं कि- अग्निवैताल सोमृडा धान्यके नैवेद्य आदि ही से विक्रमराजा के वशमें हुआ था । भूत, प्रेत, पिशाच आदि भी खीर, खिचडी, बडा इत्यादि अन्न ही का उतारा आदि मांगते हैं. वैसेही दिक्पालका तथा तीर्थंकरका उपदेश होनेके अनन्तर जो बलि कराया जाता है वह भी अन्न ही से कराते हैं ।
एक निर्धन कृषक साधुके वचनसे समीपस्थ जिनमंदिरमें प्रतिदिन नैवेद्य धरता था। एक दिन देर होजानेसे अधिष्ठायक यक्ष सिंहके रूपसे तीन भिक्षु बताकर उसकी परीक्षा करी । परीक्षा में निश्चल रहा इससे संतुष्ट यक्षके वचन से सातवें दिन स्वयंवर में कन्या, राजजय और राज्य ये तीनों वस्तुएं उसे मिलीं । लोकमें भी कहा है कि
धूपो दहति पापानि दीपो मृत्युविनाशनः । नैवेद्ये विपुलं राज्यं, सिद्धिदात्री प्रदक्षिणा ॥ १ ॥ धूप पापोंको भस्म कर देता है, दीप मृत्युको नाश करता है, नैवेद्य देने से विपुल राज्य मिलता है और प्रदक्षिणास कार्यसिद्धि होती है । अन्न आदि सर्व वस्तुएं निपजनको कारण होनेसे जल अन्नादिकसे भी अधिक श्रेष्ठ है। इसलिये वह भी