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________________ (२३०) लिये भक्तिसे एक सौ सत्तर प्रतिमाएं कराता है, अतएव त्रितीर्थी ( तीन प्रतिमाएं ), पंचतीर्थी (पांच प्रतिमाएं ), चतुविंशतिपट्ट ( चौबीस प्रतिमाएं ) आदि करना न्याययुक्त है। इति अंगपूजा. अब अग्रपूजाका वर्णन करते हैं । विविध प्रकारका ओदन ( भात ) आदि अशन, मिश्री गुड आदिका पान, पक्वान्न मिठाई तथा फल आदि खाद्य और ताम्बूल आदि स्वाद्य, ऐसा चार प्रकारका नैवेद्य भगवानके सन्मुख रखना. जैसे श्रेणिक राजा प्रतिदिन सोनेके एकसौ आठ जबसे मंगलिक आलिखता था, वैसे ही सोने अथवा चांदीके चांवल, सफेद सरशव, चांवल इत्यादिक वस्तुसे अष्टमंगलिक आलिखना, अथवा ज्ञान, दर्शन, चारित्रकी आराधनाके हेतु पाटले आदि वस्तुमें श्रेष्ठ अखंड चांवलके क्रमशः तीन पुंज (ढिगलियां) करके डालना । गोशीर्षचंदनके रससे पांचों अंगुलियों सहित हथेलीसे मंडल रचना आदि, तथा पुष्पांजलि आरती आदि सर्व अग्रपूजामें आते हैं । भाष्यमें कहा है कि-गायन, नृत्य, वाजिंत्र, नमक उतारना, जल तथा आरती दीप आदि जो कुछ किया जाता है, उस सबका अग्रपूजामें समावेश होता है । नैवेद्यपूजा तो नित्य सुखपूर्वक की जा सके ऐसी है, तथा उसका फल भी बहुत ही बड़ा है. कारण कि, साधारण धान्य तथा विशेष कर पकाया हुआ धान्य जगत्का जीवन होनेसे सर्वोत्कृष्ट रत्न
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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