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________________ ( १७१ ) , करके आम आदिक अचित्त होजाय तो भी उसमें प्रायः मीठास स्वाद आदि रहता है, परन्तु नागरबेल के पानमें तो बिल्कुल नहीं रहता इससे वे सचित्त ही प्रायः खाते हैं । सचित नागर1 बेलके पानमें जलकी आर्द्रताआदि नित्य रहने से नीली ( लीलफूल ) तथा कुंथुआ आदि जीवोंकी उत्पत्ति होने से बहुत विराधना होती है, इसीलिये पापभीरू पुरुष रात्रिके समय तो उस ( पान ) का उपयोग करते ही नहीं और जो व्यवहार में लाते हैं, वे भी रात्रि में खाने के पान दिनमें भली भांति देखकर रखे हुए ही वापरते हैं । ब्रह्मचारी ( चतुर्थव्रतधारी ) श्रावकने तो कामोत्तेजक होनेसे नागरबेल के पान अवश्य छोडना चाहिये । ये ( नागरबेल के पान ) प्रत्येक वनस्पति हैं अवश्य, पर प्रत्येक पान, फूल, फल इत्यादिक हरएक वनस्पतिमें उसकी निश्रासे रहे हुए असंख्यजीवकी विराधना होने का संभव है । कहा है कि " जं भणिअं पज्जत्तगनिस्साए वुक्क तऽपज्जत्ता | जत्थेगो पज्जतो, तत्थ असंखा अपज्जत्ता ॥ १ ॥” पर्याप्तजीवकी निश्रासे अपर्याप्त जीवों की उत्पत्ति होती है। जहां एक पर्याप्त जीव, वहां असंख्य अपर्याप्त जीव जानो । बादर एकेन्द्रियों के विषय में यह कहा । सूक्ष्म में तो जहां एक अपर्याप्त, वहां उसकी निश्रासे असंख्यों पर्याप्त होते हैं । यह बात आचारांगसूत्रवृत्ति आदि ग्रंथों में कही है । इस भांति एक
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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