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________________ (१२७) जह सिढिलमसुइदव्वं, छुप्पंतपिहु नरं खरंटेइ । एवमणुसासगपिहु दूसंतो भन्नइ खरंटो ॥ ५ ॥ निच्छयओ मिच्छत्ती, खरंटतुल्लो सवत्तितुल्लोवि । ववहारओ उ सड्ढा, वयंति जं जिणगिहाईसु ॥ ६ ॥ साधुके जो कुछ कार्य हों उनका मनमें विचार करे, यदि साधुका कोई प्रमाद स्खलित दृष्टि में आवे तो भी साधुपरसे राग कम न करे और जैसे माता अपने पुत्र पर वैसे ही मुनिराज पर अतिशय हितके परिणाम रखे वह श्रावक मातापिताके समान है १। जो श्रावक साधुके ऊपर मनमें तो बहुत राग रखे पर बाहरसे वि.य करनेमें मंद आदर दिखावे, परन्तु यदि कोई साधुका पराभव करे तो उस समय शीघ्र वहां जाकर मुनिराजको सहायता करे वह श्रावक बंधुके समान है २ । जो श्रावक अपनेको मुनिके स्वजनसे भी अधिक समझें, तथा कोई कार्य में मुनिराज इसकी सलाह न ले तो मनमें अहंकारसे रोष करे, वह श्रावक मित्रसमान है ३ । जो भारी अभिमानी श्राक्क साधुके छिद्र देखा करे, प्रमाद वश हुई उनकी भूल हमेशा कहा करे तथा उनको तृणवत् समझे वह श्रावक सपत्नीसमान है ४ । दूसरे चारप्रकारोमें-गुरुका कहा हुआ सूत्रार्थ जैसा कहा हो वैसा ही उसके मनमें उतरे उस सुश्रावकको सिद्धांतमें आरिसा (दर्पण) समान कहा है १। जो श्रावक गुरुके वचनोंका निर्णय न करनेसे पवन जैसे ध्वजाको इधर उधर करता है वैसे ही अज्ञानी पुरुष
SR No.023155
Book TitleShraddh Vidhi Hindi Bhashantar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatnashekharsuri
PublisherJainamrut Samiti
Publication Year1930
Total Pages820
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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