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उपसंहार
अपने अनुचरों के रूप में अमात्य, सेनापति, श्रेष्ठी, लेखवाह, नगररक्षक, तलवर, दूत, कौटुम्बिक पुरुष, दास-दासियाँ व द्वारपाल आदि रखता था ।
राजा और राज्य का अस्तित्व सैन्य संगठन के हाथ में सुरक्षित रहता है । चतुरंगिणी सेना, सेनापति, सारथी और वीर योद्धा में मुख्य भूमिका निभाते थे । धनुष, तलवार, भाला, मूसल आदि हथियार प्रचलन में थे ।
राज्य के आय स्रोत के रूप में चुंगी, कर, जुर्माना, ऋण आदि प्रचलन में थे। राज्य द्वारा अर्जित अधिकांश भाग राजकोष में जमा रहता था और कुछ धन सार्वजनिक निर्माण कार्यों पर व्यय कर दिया जाता था ।
उस समय के राजनेता आम जनता के सुख-दुःख में सहभागी बनते थे । ऐतिहासिक पुरुष श्रीकृष्ण वासुदेव के अन्तर्मानस में अपनी जनता के प्रति लगाव था। एक साधारण महिला भी उनके पास आसानी से पहुँचकर अपनी व्यथा सुना सकती थी और वे प्रत्येक व्यक्ति की बात को शान्ति से सुनते और समस्या का समाधान करते थे। आज के राजनेता यदि इससे प्रेरणा ग्रहण करें तो राजनीति 'घृणित' कहलाने के कलंक से छुटकारा पा सकती है।
प्राचीन काल से मानव जीवन में शिक्षा का स्थान सर्वोपरि रहा है। 'ज्ञाताधर्मकथांग में शिक्षा' नाम सप्तम अध्याय में शिक्षा से जुड़े विविध पहलुओं का संश्लेषण - विश्लेषण किया गया है ।
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बालक आठ वर्ष का होने पर ज्ञानार्जन के लिए गुरु के पास भेजा जाता था जहाँ वह बहत्तर कलाओं की शिक्षा प्राप्त करता था । शिक्षा के विषय मुख्यतः अध्यात्म केन्द्रित थे । इनके अलावा वास्तुशास्त्र, तर्कशास्त्र, दर्शनशास्त्र, संगीत, चित्रकला, वाणिज्यशास्त्र आदि विषयों की भी शिक्षा दी जाती थी । शिक्षण की वैज्ञानिक शैली के पाँच अंग थे- वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय तथा धर्मोपदेश । शिक्षण को रोचक बनाने के लिए कथाओं का सहारा लिया जाता था । समाज में गुरु का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण था । गुरु ज्ञानवान, ओजस्वी, निर्लोभी व चारित्र सम्पन्न होते थे । विनयवान, तपस्वी, शरीर के प्रति अनासक्त व ब्रह्मचारी शिष्य गुरु की सेवा में सदैव तत्पर रहते थे।
गुरु-शिष्य के सम्बन्धों पर ही टिकी है सफल शिक्षण व्यवस्था की नींव । भारतीय संस्कृति में गुरु को गोविन्द से बड़ा बताया गया है। गुरु ही शिष्य को भवसागर से पार लगाते हैं। महावीर - मेघ और शैलक-पंथक जैसे प्रसंग क्रमश:
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