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ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन है अर्थात् वेदना के विपाक को निर्जरा कहते हैं। नवीन कर्मों का संचय न होना और पुराने कर्मों का नाश हो जाना मोक्ष का कारण है। निर्जरा से ही ये दोनों कारण प्राप्त होते हैं। परीषहजय, तप आदि से निर्जरा होती है। इसके चिन्तन से चित्त निर्जरा के लिए तत्पर हो जाता है। 10. लोक भावना
लोक के स्वरूप पर चिन्तन करना लोक भावना है। 11. बोधिदुर्लभ भावना
आत्मज्ञान अथवा सम्यक्त्व को बोधि-बीज कहा जाता है। इस बोधिबीज की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है। यह जीव अनन्तकाल तक अनेक योनियों में मिथ्यात्व रूप गहन अंधकार में पड़ा रहा है। जब अनन्त पुण्य राशि का उदय होता है, तब वह निगोद अवस्था से निकलकर क्रमशः निरन्तर बेइन्द्रिय से यावत् नवग्रैवेयक तक भी पहुँचता है, लेकिन सम्यक्त्व के अभाव में सब क्रियाएँ उसी तरह निरर्थक है, जैसे अंक के बिना शून्य। बोधि-बीज या सम्यक्त्व की प्राप्ति होने पर ही रत्नत्रय की आराधना हो सकती है, अन्यथा नहीं। इस प्रकार बोधिबीज की दुर्लभता का चिन्तन करना बोधिदुर्लभ भावना है। 12. धर्म भावना
__ यथार्थ धर्म के स्वरूप पर चिन्तन करना और उसकी प्राप्ति कैसे की जाए, इसका बार-बार विचार करना धर्म भावना है। जिनधर्म निःश्रेयस का कारण है, ऐसा विचार करने से धर्म के प्रति अनुराग बढ़ता है।
ज्ञाताधर्मकथांग में धर्मरूचि अणगार ने इस धर्म भावना की आराधना की। नागश्री ब्राह्मणी ने धर्मरूचि अनगार को कड़वे तुम्बे का शाक बहराया था। वह आहार लेकर जब अपने गुरु के पास आए और उन्हें वह आहार बताया तो गुरुजी ने उसे विषाक्त (विषैला) जानकर निरवद्य स्थान पर परठाने की आज्ञा दी। धर्मरूचि अनगार ने स्थंडिल भू-भाग में उस शाक की एक बूंद पृथ्वी पर डाली। उसी समय अनेक चींटियाँ वहाँ आ गई और शाक खाकर मर गई। धर्मरूचि अनगार से यह नहीं देखा गया। उन्होंने अपने पेट को सर्वोत्तम निरवद्य जगह मानकर वह आहार कर लिया। उससे सारे शरीर में वेदना उत्पन्न हो गई। मुनिराज जीवरक्षा के लिए उस वेदना को समभाव से सहते रहे। इस प्रकार वे धर्मभावना भाते हुए सर्वार्थसिद्धि को प्राप्त हुए। वे अगले भव में कर्मों का अंत
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