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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन करके मोक्ष में जाएंगे।
इन बारह भावनाओं में से एक-एक भावना का अवलम्बन लेने से भी अनेक आत्माओं का कल्याण हुआ है। अनुप्रेक्षाओं के चिन्तन से मन एकाग्र होता है और इन्द्रियाँ वश में होती हैं। मन के एकाग्र होने से स्व संवेदन के द्वारा आत्मा की अनुभूति होती है। उसी आत्मानुभूति के द्वारा जीव-मुक्त दशा और अंत में परम मुक्ति प्राप्त होती है।
दर्शन के तीन आधारभूत अंगों की मीमांसा के बाद कर्म-मीमांसा का उल्लेख आवश्यक प्रतीत होता है
ज्ञाताधर्मकथांग में कर्ममीमांसा
प्राणी की अपनी शुभ और अशुभ प्रवृत्ति के द्वारा आकृष्ट पुद्गल स्कंध (कर्मवर्गणा), जो आत्मा के साथ एकीभूत हो जाता है, कर्म कहलाता है। कर्म के आठ प्रकार बतलाए गए हैंज्ञानावरणीय कर्म- आत्मा की ज्ञान चेतना को आवृत्त करने वाला। दर्शनावरणीय कर्म- आत्मा की दर्शन चेतना को आवृत्त करने वाला। वेदनीय कर्म- सुख-दुःख की अनुभूति में हेतुभूत बनने वाला। मोहनीय कर्म- चेतना को विकृत या मूर्च्छित करने वाला। आयुष्य कर्म- किसी एक गति में निश्चित अवधि तक बांधकर रखने वाला। नाम कर्म- शरीर-संरचना की प्रकृष्टता या निकृष्टता का कारण। गोत्र कर्म- जीव को अच्छी या बुरी दृष्टि से देखे जाने के निमित्त बनने वाला। अन्तराय कर्म- आत्म-शक्ति की उपलब्धि में बाधा पहुँचाने वाला।
इन कर्मों में से चार कर्म अघाति तथा शेष चार घातिकर्म कहलाते हैं। ज्ञाताधर्मकथांग में कहा गया है कि मल्ली अरहन्त वेदनीय, आयु, नाम और गोत्रइन चार अघातिकर्मों के क्षीण होने पर सिद्ध हुए। शेष चार ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय तथा अंतरायकर्म घाति कर्म है। तैतलिपुत्र को इन घाति कर्मों का क्षय होने पर ही केवलज्ञान तथा केवलदर्शन की प्राप्ति हुई।296 पूर्वजन्म और पुनर्जन्म
जन्म के साथ मरण का अटूट रिश्ता है। विज्ञान आज भी मृत्यु पर विजय नहीं पा सका है। जन्म लेने के बाद मृत्यु अवश्यंभावी है, उसको कोई भी टाल
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