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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन 6. अशुचि भावना
___ शरीर की अपवित्रता का चिन्तन करना अशुचि भावना है। शरीर का आदिकारण वीर्य और रज है, जो स्वयं अत्यन्त अपवित्र है। शरीर मल-मूत्र, रक्त, पीप आदि का भण्डार है। इस प्रकार शरीर की अशुचिता पर चिन्तन करना।
ज्ञाताधर्मकथांग में मेघकुमार अपने माता-पिता के समक्ष इस भावना को प्रकट करते हुए कहते हैं कि शरीर अशुचिमय है। इसमें वमन-पित्त-कफशुक्र-शोणित झरता है, मल-मूत्र और पीव से परिपूर्ण है। यह पहले या पीछे अवश्य त्याग करने योग्य है।
माणुस्सगा कामभोगा असुई असासया वंतासवा पित्तासवा खेलासवा सुक्कासवा सोणियासवा दुरुस्सासनीसासा दुरुयमुत्त-पुरीस-पूय बहुपडिपुना उच्चारपासवण-खेल-जल्ल-वंत-पित्त-सुक्क सोणितसंभवा अधुवा अणियया असासया सडण-पडण-विद्वंसणधम्मा पच्च्छापुरं च णं अवस्सविप्पजहणिज्जा।92
ज्ञाताधर्मकथांग में मल्ली ने जितशत्रु आदि राजाओं को भी इस अनुप्रेक्षा के द्वारा मार्गदर्शन दिया। मल्ली ने कहा यह औदारिक शरीर तो कफ को झराने वाला है, खराब उच्छ्वास और निश्वास निकालने वाला है, अमनोज्ञ मूत्र एवं दुर्गन्धित मल से परिपूर्ण है, सड़ना, गलना, नष्ट होना और विध्वस्त होना इसका स्वभाव है, तो इसका परिणमन कैसा होगा?
ओरालियसरीरस्स खेलासवस्स वंतासवस्स पित्तासवस्स सुक्कसोणियपूयासवस्स दुरूवऊसास-नीसासस्स दुरूव-मूतपूतिय-पुरीसपुणास्स सडण-पडणछेयण-विद्वंसणधम्मस्स केरिसए परिणामे भविस्सई 193 7. आस्रव भावना
कर्मों का आना आस्रव है। आस्रव के दोषों का विचार करना आसवानुप्रेक्षा है अर्थात् आस्रव के अनिष्ट परिणामों का चिन्तन करना आस्रव अनुप्रेक्षा है। 8. संवर भावना
कर्मों के आगमन के कारणों को बन्द कर देना संवर है। यह आत्मनिग्रह से ही हो सकता है। आस्रव के द्वारों को बन्द करने के लिए सद्वृत्ति के गुणों का चिन्तन करना संवर भावना है। 9. निर्जरा भावना
आंशिक रूप से कर्मों का खिरना (आत्मा से अलग होना) निर्जरा कहलाती
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