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ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन जरा का उल्लंघन नहीं किया जा सकता, तब थावच्चापुत्र कहते हैं कि संसार के दःखों से बचाने वाला धर्म के अलावा कोई नहीं है। सच्चा शरणभूत धर्म ही है
और थावच्चापुत्र उसी की शरण को ग्रहण करता है।286 3. संसार भावना
कर्मों के कारण जन्म-जन्मान्तर ग्रहण करना संसार है। यह जीव अनन्तानन्त योनियों में परिभ्रमण करता हुआ सहस्रों दुःख पाता है। इस संसार में न तो कोई स्वजन है और न कोई परजन, क्योंकि प्रत्येक जीव के साथ तरह-तरह के सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर में हुए हैं। यह संसार हर्ष-विषाद, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों का स्थान है और सचमुच कष्टमय है- इस प्रकार का गहन चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है।
ज्ञाताधर्मकथांग में इस भावना को मुनि मेघकुमार287 एवं मल्लिभगवती और उनसे प्रतिबोध पाए छहों राजाओं288 ने भाया था। मल्लीकुमारी ने अपने पिछले भव का वृत्तान्त सुनाकर उन्हें ब्याहने आए छः राजाओं को प्रतिबोध दिया
और उन्हें भी जाति स्मरण ज्ञान हो गया। उन्होंने भी संसार की विषमताओं का चिन्तन किया और मुक्त हुए।289 5. एकत्व भावना
आत्मा के अकेलेपन का चिन्तन करना एकत्व अनुप्रेक्षा है। बन्धुजन श्मशान तक के ही साथी होते हैं। धर्म ही एकमात्र शाश्वत साथी है।
ज्ञाताधर्मकथांग में तैतलिपुत्र का जब कोई भी आदर-सत्कार नहीं करते तब वह आत्महत्या करने का प्रयत्न करता है लेकिन जैसे ही पोट्टिला देव प्रतिबोध देते हैं तो उसे जाति स्मरण ज्ञान हो जाता है और वह मन ही मन चिन्तन करता है कि इस संसार में अपना कोई नहीं है, अपना तो आधार केवल एक धर्म ही है। 5. अन्यत्व भावना
शरीर से आत्मा के अन्यत्व का चिन्तन करना अन्यत्व अनुप्रेक्षा है। इसकी प्राप्ति के लिए शरीर और आत्मा की भिन्नता पर चिन्तन करना।
ज्ञाताधर्मकथांग में धन्यसार्थवाह और विजयचोर के वृत्तान्त के माध्यम से आचार्य सुधर्मा स्वामी जम्बूस्वामी को आत्मा और शरीर की भिन्नता को बताते हुए अन्यत्व भावना की ओर प्रेरित करते हुए देखे जाते हैं।
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