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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन गया है। ये उपाश्रय प्रायः नगर के बाहर उद्यान आदि के रूप में होते थे। सभी श्रमण सर्वप्रथम उपाश्रय की याचना करते और मालिक की आज्ञा मिलने पर ही वहाँ प्रवास करते थे। साधु किसी एक स्थान या उपाश्रय में स्थायी रूप से निवास नहीं करते थे अपितु उनके लिए वर्षाकाल को छोड़कर शेषकाल में एक ग्राम से दूसरे ग्राम में इन्द्रियनिग्रहपूर्वक विचरण करने का उल्लेख मिलता है।186 आहार
__ भोजन के बिना कोई भी कार्य करना संभव नहीं है क्योंकि भोजन से ही इन्द्रियाँ पुष्ट होकर देखने, सुनने और विचार करने का सामर्थ्य प्राप्त करती है। ज्ञाताधर्मकथांग में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना के लिए आहार करना बताया है न कि शरीर को मोटा-ताजा करने के लिए।137 भगवान महावीर ने मेघकुमार को प्रमाणयुक्त एवं क्षुधा वेदनादि निवारणार्थ भोजन करने की शिक्षा दी।188
स्थानांग189, उत्तराध्ययन19 एवं मूलाचार191 में आहार ग्रहण और त्याग के छ:-छ: कारणों का उल्लेख मिलता है। आहार-ग्रहण के छः कारण
(1) क्षुधावेदना की शान्ति के लिए, (2) वैयावृत्य (सेवा) के लिए, (3) ईर्यासमिति के पालन हेतु, (4) संयम के लिए, (5) प्राण रक्षा के लिए, (6) धर्म चिन्तन के लिए। इन छ: कारणों से जो श्रमण अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य- ये चार प्रकार के आहार ग्रहण करता है वह चारित्र धर्म का पालन करने वाला है। आहार-त्याग के छः कारण
(1) भंयकर रोग हो जाने पर, (2) आकस्मिक संकट (उपसर्ग) आ जाने पर, (3) ब्रह्मचर्य व्रत की रक्षा के लिए, (4) जीवों की रक्षा के लिए, (5) तप करने के लिए, (6) संलेखना-संथारा करने के लिए। इन छ: कारणों में से किसी एक के भी उपस्थित होने पर आहार का त्याग कर देना चाहिए।
सुधर्मा स्वामी जम्बू को कहते हैं कि श्रमण को संयम पालने और मोक्ष प्राप्त करने के लिए आहार करना चाहिए, इन्द्रियासक्त होकर नहीं करना चाहिए।12 कुण्डरीक सरस एवं पौष्टिक आहार करने के कारण इन्द्रियों में आसक्त होकर संयम से च्युत हो गया था।93 निर्ग्रन्थ श्रमणों को आधाकर्मी, औद्देशिक, क्रीतकृत, स्थापित, रचित,
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