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ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन व्रतों में तो शामिल नहीं किया गया है लेकिन इनका सेवन करने के कारण विजय चोर 169 और चिलात दासचेटक 170 को अव्रती, अधर्मी, व्रतहीन और गुणहीन बतलाया गया है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि इन सप्त कुव्यसनों से दूर रहना श्रमणोपासक के लिए अनिवार्य था ।
श्रमणाचार
जैसा कि कहा जाता है कि श्रमणाचार मोम के दाँतों से लोहे के चने चबाने के समान है। जैन धर्म में जीवन का चरम लक्ष्य मोक्ष-प्राप्ति बतलाया गया है। मोक्ष-मार्ग अत्यन्त दुष्कर है। इसके लिए मुमुक्षु को दीक्षा से लेकर मोक्षमंजिल तक पहुँचने के लिए कठोर श्रमणाचार का पालन करना होता है। ज्ञाताधर्मकथांग में श्रमणाचार के विविध अंग यत्र-तत्र मिलते हैं। इन सभी का शोधपरक समुचित सिंहावलोकन इस प्रकार है
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दीक्षा
संसार के विषयों से निरासक्त एवं मुक्ति का अभिलाषी प्रत्येक व्यक्ति जाति, कुल, आयु और लिंग के भेदभाव के बिना दीक्षा अंगीकार कर सकता है। संसार के विषय-भोगों में आसक्त व्यक्ति श्रेष्ठ जाति व कुल में उत्पन्न होकर भी इसके अयोग्य है जबकि सदाचार पालन करने की सामर्थ्यवाला प्रत्येक व्यक्ति जो संसार के विषयों से विरक्त होकर मुक्ति की अभिलाषा रखता है, दीक्षा लेने अधिकारी है।
दीक्षा के लिए अनुमति
मेघकुमार आदि सभी मुमुक्षु दीक्षा लेने से पूर्व माता-पिता व सम्बन्धीजनों से अनुमति लेते हैं । 171 महाबल आदि छहों राजा, पाण्डव व महापुण्डरीक ने घर ज्येष्ठ पुत्रादि को संपत्ति आदि सौंपकर दीक्षा ली। 172 यदि माता-पिता पुत्र को दीक्षा के लिए अनुमति न देकर भोग-विलास की ओर प्रशस्त करें तो दीक्षा लेने वाले का सर्वप्रथम कर्त्तव्य है कि वह माता-पिता को समझाने का प्रयत्न करे और उनको संतुष्ट करने के पश्चात् ही दीक्षा ले ।
ज्ञाताधर्मकथांग में एक भी व्यक्ति ऐसा दिखाई नहीं देता जिसने बिना आज्ञा दीक्षा ली हो। यह एक बहुत ही सुन्दर और सामाजिकता - आध्यात्मिकता के संबंध को पुष्ट करने वाली परम्परा रही है, जिसका पालन आज भी किया जा रहा है।
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