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ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन वाङ्मय श्रुतनिधि ही है। सुधर्मास्वामी, थावच्चापुत्र", जितशत्रु आदि छ: राजा व महापद्मराजा" चौदहपूर्वो के ज्ञाता थे जबकि मेघकुमार, अमात्य सुबुद्धि", पोट्टिला, द्रौपदी, कंडरीका2 तथा काली आर्या103 ने ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। चौदह पूर्व व ग्यारह अंग श्रुतज्ञान के ही अंश हैं। 3. अवधिज्ञान
इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना सूक्ष्म और स्थूल, व्यवहित और अव्यवहित, दूरस्थ और निकटस्थ पदार्थों को साक्षात् करने की ज्ञानशक्ति का नाम अवधिज्ञान है। अवधि का अर्थ है 'सीमा' अथवा 'वह जो सीमित है।' अवधिज्ञान की क्या सीमा है? अवधि का विषय केवल रूपी पदार्थ है।104 जो रूप, रस, गंध और स्पर्शयुक्त है वही अवधि का विषय है, इससे आगे अरूपी पदार्थों में अवधि की प्रवृत्ति नहीं हो सकती। दूसरे शब्दों में कहें तो छ: द्रव्यों में से केवल पुद्गल ही अवधिज्ञान का विषय हो सकता है।
इस ज्ञान के दो प्रकार हैं- भवप्रत्यनिक एवं गुणप्रत्यनिक। नैरयिक एवं देवताओं का अवधिज्ञान भवप्रत्यनिक है जबकि मनुष्य और तिर्यञ्च का अवधिज्ञान गुणप्रत्यनिक होता है।
ज्ञाताधर्मकथांग में अवधिज्ञान के उपयोग से जुड़े अनेक प्रसंग हैं। अभयकुमार द्वारा स्मरण किए जाने पर उसके पूर्व मित्र सौधर्मकल्पवासी देव ने अपने अवधिज्ञान का उपयोग लगाकर अभयकुमार की स्थिति को जाना।05 इसी प्रकार अर्हन्नक श्रद्धा से विचलित होता है या नहीं, इसे जानने के लिए देव ने106, मल्ली के प्रव्रज्या संकल्प को जानने के लिए लोकान्तिक देवों ने107 तथा माकन्दी पत्रों को देखने के लिए रत्नद्वीप की देवी108 ने तथा शैलक ने अपना अवधिज्ञान लगाया। दर्दुर देव ने अपने अवधिज्ञान से सम्पूर्ण जम्बूद्वीप को देखा। मल्ली भगवती की समण सम्पदा में दो हजार अवधिज्ञानी साधु थे। 10 4. मनःपर्यवज्ञान
मन एक प्रकार का पौद्गलिक द्रव्य है। जब व्यक्ति किसी विषय का विचार करता है तब उसके मन का विविध पर्यायों में परिवर्तन होता है। मन:पर्ययज्ञानी उन पर्यायों का साक्षात्कार करता है। उस साक्षात्कार के आधार पर वह यह जान सकता है कि यह व्यक्ति इस समय अमुक बात सोच रहा है।
मनःपर्ययज्ञान के दो प्रकार हैं- ऋजुमति और विपुलमति।।
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