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ज्ञाताधर्मकथांग में प्रतिपादित धर्म-दर्शन पर्याप्ति, भाषा पर्याप्ति व मन पर्याप्ति । ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लेख मिलता है कि काली देवी सूर्याभदेव की तरह भाषापर्याप्ति और मनपर्याप्ति आदि पाँच प्रकार की पर्याप्तियों से युक्त थी। देवताओं के भाषा और मन पर्याप्ति एक साथ होती है अतः यहाँ पाँच पर्याप्ति कहा गया है।
शरीर
पौद्गलिक सुख-दुःख की अनुभूति को जो साधन है, वह शरीर है। शरीर के प्रकार बताते हुए तत्त्वार्थ सूत्र में कहा गया है- 'औदारिकवैक्रियआहारकतैजस्कार्मणाणि शरीराणि'39 1. औदारिक शरीर
औदारिक शरीर की निष्पत्ति स्थूल पुद्गलों से होती है। इसका छेदनभेदन हो सकता है।
विदेहराजवरकन्या मल्ली जितशत्रु आदि राजाओं को प्रतिबोध देते हुए कहती है- 'औदारिक शरीर तो कफ को झराने वाला है, खराब उच्छ्वासनिश्वास निकालने वाला है, अमनोज्ञमूत्र एवं दुर्गन्धित मल से परिपूर्ण है, सड़ना, पड़ना, नष्ट होना और विश्वस्त होना इसका स्वभाव है।'40 2. वैक्रिय शरीर ___ वैक्रिय शरीर में विविध प्रकार की क्रियाएँ घटित होती हैं। यह शरीर छोटा, बड़ा, स्थूल, सूक्ष्म, आकाशचारी, पृथ्वीचारी, दृश्य-अदृश्य कैसा भी बनाया जा सकता है। ज्ञाताधर्मकथांग में अभयकुमार का मित्रदेव विचित्र विक्रिया से दिव्य रूप धारणकर अभयकुमार के पास पहुँचता है। इस विक्रियता के लिए वह वैक्रिय-समुद्घात करता है यानी उत्तर वैक्रिय शरीर बनाने के लिए जीवप्रदेशों को बाहर निकालता है और फिर सारभूत पुद्गलों को ग्रहण करता है।" ग्रहण करके उत्तर वैक्रिय शरीर बनाता है। 3. आहारक शरीर
विशिष्ट योगशक्तिसम्पन्न, चतुर्दशपूर्वधर मुनि विशिष्ट प्रयोजनवश एक शरीर की संरचना करते हैं, उसे आहारक शरीर कहा जाता है। समवायांग सूत्र में कहा गया है कि जब कभी चतुर्दशपूर्वपाठी मुनि को किसी सूक्ष्म विषय में संदेह हो जाता है और जब सर्वज्ञ का सन्निधान नहीं होता, तब वे अपना संदेह
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