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________________ ज्ञाताधर्मकथांग में कला मिलता है कि श्रीकृष्ण का धनुष शुक्लपक्ष की द्वितीया के अचिर-उदित चन्द्रमा और इन्द्रधनुष के समान वक्र था, अतीव दृप्त मदमाते उत्तम मषि के दृढ़ और सघन शृंगों के अग्रभागों से बनाया गया था, कृष्ण सर्प, श्रेष्ठ भैंसे के सींग, उत्तम कोकिला, भ्रमर-निकर और नील की गोली के सदृश उज्ज्वल स्निग्ध-काली कान्ति से युक्त उसका पृष्ठ भाग था, किसी कुशल कलाकार द्वारा उजाले गए चमकाए हए-मणिरत्नों की घंटियों के समूह से वेष्टित था, चमकती बिजली की किरणों जैसे स्वर्ण-चिह्नों से सुशोभित था, दर्दर और मलयपर्वत शिखरों पर विचरण करने वाले सिंह की गर्दन के बालों (अयाल) तथा चमरों की पूंछ के केशों के एवं अर्द्धचन्द्र के लक्षणो-चिह्नों से युक्त था। काली, हरी, लाल, पीली और श्वेत वर्ण की नसों से उसकी जीवा (प्रत्यंचा) बंधी थी। वह धनुष शत्रुओं के जीवन का अंत करने वाला था।135 नगररक्षकों ने विजयचोर को पकड़ने के लिए जाने से पूर्व अपने आप को आयुद्धों से सज्जित किया और धनुषरूपी पट्टिका पर प्रत्यंचा चढ़ाई ।136 वट्टखेडं __वट्टखेडं यानी खेत जोतना। ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लेख मिलता है कि रोहिणी ने अपने कौटुम्बिकजनों को चावल निपजाने के लिए खेत जोतने को कहा।137 कडगच्छेज्जं इससे तात्पर्य है- कड़ा-कुण्डल आदि का छेदन करना। ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लेख मिलता है कि कुम्भराजा ने सुवर्णकार की श्रेणी को बुलाकर मल्ली के कुण्डल-युगल के जोड़ को सांधने का कहा।138 सउणरुअं सउणरुअं इसका अर्थ है काक-घूक आदि पक्षियों की बोली पहचानना। मेघकुमार ने कलाचार्य से यह कला भी सीखी।139 बहत्तर कलाओं में सम्मिलित शेष कलाओं-समतालं, पासयं, अजं, पहेलियं, मागहियं, गाहं, सिलोयं, हिरण्णजुति, सुवनजुति, इत्थिलक्खणं, कागणिलक्खणं, गरुलवूहं, निजुद्धं, लयाजुद्धं, छरुप्पवायं, हिरन्नपागं, सुवनपागं, सुत्तखेडं, नालियाखेडं, पत्तच्छेजं, सज्जीवं, निज्जीवं का ज्ञाताधर्मकथांग में सिर्फ नामोल्लेख 40 ही मिलता है। ज्ञाताधर्मकथांग में इन बहत्तर कलाओं के अलावा वर्णित चित्रकला'47, (255
SR No.023141
Book TitleGnatadharm Kathang Ka Sanskritik Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShashikala Chhajed
PublisherAgam Ahimsa Samta evam Prakrit Samsthan
Publication Year2014
Total Pages354
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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