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ज्ञाताधर्मकथांग में कला श्रद्धा, भक्ति आदि वृत्तियों की स्निग्धता, शीतलता में सौन्दर्य लहराता हुआ पाते हैं। यदि कहीं बाह्य और आभ्यंतर दोनों सौन्दर्य का योग दिखलाई पड़े तो फिर क्या कहना है, यह योग ही कला है।''22 ____ कला की अनेकानेक परिभाषाएँ विश्व साहित्य में उपलब्ध हैं, किन्तु सार रूप में कहा जा सकता है कि 'कला' आत्माभिव्यक्ति भी है और रचनात्मक प्रक्रिया भी। कला एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें मानव-चेतना और बाह्य सृष्टि के रूपों की संश्लिष्ट अभिव्यंजना होती है। व्यापक अर्थ में 'कला' मानव की कर्तृत्व क्षमता का किसी भी मानसिक और शरीरिक उपयोगी या आनन्ददायी वस्तु के निर्माण के लिए किया गया कौशलयुक्त प्रयोग है और वह शिवत्व की उपलब्धि के लिए सत्य की सौन्दर्यमयी अभिव्यक्ति है।
कला के तत्त्व
सामान्यतः प्रत्येक कला की अपनी-अपनी विशिष्टताएँ होती हैं, लेकिन कुछ ऐसे तत्त्व होते हैं जो प्रत्येक कला में यत्किंचित विद्यमान रहते हैं, जिन्हें हम कला की सामान्य विशेषताएँ कह सकते हैं, जिनका संक्षिप्त निदर्शन इस प्रकार
है
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प्रत्येक कला किसी न किसी रूप में सौन्दर्य से अनुप्राणित होती है। प्रत्येक कला का कोई न कोई मूर्त आधार होता है, भले ही कुछ मूर्त पत्थर, ईंटों की भांति स्थूल हों और कुछ नाद या शब्द की भांति अत्यन्त सूक्ष्म या विरल। सौन्दर्य बोध चक्षुरिन्द्रिय और कर्णेन्द्रिय से होता है। ज्ञानेन्द्रियाँ मध्यस्थ का काम करती है। इनके द्वारा कलाकार के मनोभाव दर्शक या श्रोता के मन में प्रेषित और गृहीत होते हैं। सभी कलाकृतियाँ प्रतीकात्मक होती है अर्थात् वे उन सौन्दर्य-तत्त्वों, भावों या अर्थों के वाहक मात्र हैं। भारतीय कलाकार की यह विशेषता है कि वह केवल शारीरिक अनुरंजन को ही कला का विषय न मानकर सांस्कृतिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास का ध्यान रखकर कला का सृजन करता है, उस कला की अंतिम परिणति परमानन्द में ही होती है। उक्ति प्रसिद्ध है
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