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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन
विश्रान्ति यस्य संभोगे सा कला न कला मता।
लीयते परमानन्दे ययात्मा सा पराकला।
कला के प्रकार और भेद
भारतीय वाङ्मय के अनेक ग्रंथों में पुरुषों व स्त्रियों के लिए भिन्न-भिन्न कलाओं के परिज्ञान का उल्लेख मिलता है। 'कला' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम भरत के नाट्यशास्त्र में ही मिलता है, उन्होंने लिखा
न तज्जानं न तच्छियं न सा विद्या न सा कला।। कामसूत्र और शुक्रनीति में भी इसका वर्णन मिलता है।24 प्रमुख रूप से रामायण, महाभारत, वाक्यपदीय, कलाविलास (क्षेमेन्द्र), दशकुमार चरित, ब्रह्माण्ड पुराण, भागवतपुराण की टीका, महिम्न स्तोत्र टीका, श्रृंगार प्रकाश, काव्यादर्श, शैवतनय, सप्तशती टीका, सौभाग्य भास्कर आदि हिन्दू ग्रंथों में कला के उल्लेख प्राप्त होते हैं। प्रायः सभी में 72 एवं 64 कलाएँ ही वर्णित हैं। केवल क्षेमेन्द्र ने 'कलाविलास' में कला के भेद-प्रभेदों की चर्चा की है और उनकी संख्या 100 से भी अधिक गिनाई है।
जैन साहित्य में जहाँ कहीं भी अध्ययनीय विषयों की चर्चा हुई है वहाँ पर कलाओं का वर्णन विस्तार से हुआ है। ज्ञाताधर्मकथांग, समवायांगसूत्र,
औपपातिकसूत्र, राजप्रश्नीयसूत्र, कल्पसूत्र, विपाकसूत्र, समरादित्य कथा, कुवलयमाला, प्रबन्धकोश, प्राकृतसूत्र रत्नमाला आदि ग्रंथों में 72 कलाओं और जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति आदि में 64 कलाओं का उल्लेख मिलता है। हरिभद्रसूरि ने यद्यपि 89 कलाओं का नामोल्लेख किया है, परन्तु जैन साहित्य में सामान्य रूप से पुरुषों के लिए 72 -'वावत्तरिकलापंडिया विपुरिरा' एवं स्त्रियों के लिए 64 कलाओं का विधान किया गया है। णायकुमार चरिउ एवं यशस्तिलकचम्पू आदि कुछ ग्रंथों में यद्यपि कलाओं की संख्या नहीं गिनाई गई है, फिर भी सभी कलाओं का प्रकारान्तर से वर्णन मिलता है।
भारतीय मनीषियों ने इन कलाओं का स्थूल रूप से दो वर्गों में विभाजन किया है
(1) ललित कलाएँ, (2) उपयोगी कलाएँ या यांत्रिक कलाएँ। उपयोगी कला व्यवहारजनित और सुविधाबोधी है तथा ललितकला मन के संतोष के लिए
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