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जैनागम एवं ज्ञाताधर्मकथांग (ख) दिगम्बर परम्परा- तत्त्वार्थसूत्र वृत्ति में दिगम्बर मतानुसार आगमों का
वर्गीकरण इस प्रकार किया गया है
आगम
अंगप्रविष्ठ
अंगबाह्य
आचारांग
सामायिक सूत्रकृतांग
चतुर्विंशतिस्तव स्थानांग
वन्दना समवायांग
प्रतिक्रमण व्याख्याप्रज्ञप्ति
वैनयिक कृतिकर्म ज्ञाताधर्मकथांग
दशवैकालिक उपासकदशांग
उत्तराध्ययन अन्तकृतदशांग
कल्पव्यवहार अनुत्तरोपपातिकदशांग
कल्पाकल्प प्रश्नव्याकरण
महाकल्प विपाकसूत्र
पुंडरीक महापुंडरीक
अशीतिका + निशीथइति पाठान्तर नोट : तत्त्वार्थ सूत्र के टीकाकार पूज्यपाद अकलंक विद्यानन्दी आदि आचार्यों ने अंगबाह्य में न केवल
उत्तराध्ययन, दशवैकालिक आदि ग्रंथों का उल्लेख किया है बल्कि कालिक व उत्कालिक रूप से वर्गीकरण का निर्देश भी तत्त्वार्थ 1/20 में किया है। हरिवंश पुराण व धवला टीका में आगमों का जो वर्गीकरण मिलता है। उसमें 12 अंगों एवं 14 अंगबाह्य ग्रंथों का नामोल्लेख किया है। अंगबाह्य में सर्वप्रथम 6 आवश्यकों का उल्लेख है उसके बाद दशवैकालिक उत्तराध्ययन, कल्प, व्यवहार, कप्पकप्पीय, महाकप्पीय, पुण्डरीक, महापुण्डरीक एवं निशीथ का उल्लेख है। धवला में जहाँ 12 अंग व 14 अंगबाह्य की गणना की है। वहाँ कल्प एवं व्यवहार का एक ही ग्रंथ माना है। दिगम्बर परम्परा में नन्दीसूत्र मान्य आगमों में मात्र पुण्डरिक और महापुण्डरिक दो नाम भिन्न है। यों
श्रीमद् सूत्रकृतांगसूत्र में पुण्डरिक नामक अध्ययन का उल्लेख श्वेताम्बर परम्परा में भी मिलता है। ज्ञाताधर्मकथांग की भाषा- अन्य अंग साहित्य की अपेक्षा श्रीमद् ज्ञाताधर्मकथांग की भाषा अधिक
प्रौढ़, साहित्यिक एवं जटिल है। इसमें अनेक स्थल ऐसे भी हैं जहाँ आलंकारिक भाषा का हृदयस्पर्शी ढंग से प्रयोग किया गया है। जिसे पढ़ते हुए कहीं-कहीं तो ऐसा लगता है मानों कमनीय काव्य का हम रसास्वादन कर रहे हैं। यथा-अष्टम अध्ययन में अहर्नक श्रावक की समुद्री यात्रा के प्रसंग में ताल-पिशाच के उपसर्ग और नौका के डूबने-उतरने का जो वर्णन किया गया है वह रोचक है। स्थान-स्थान पर मनोहारी ऊपमा-अलंकार का प्रयोग भी मिलता है।
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