________________
ज्ञाताधर्मकथांग में शिक्षा वह है जो जीवन और जगत् में से व्यक्ति को हठात् प्राप्त होती रहती है।''30
प्रस्तुत परिभाषानुसार शिक्षा सहज प्रक्रिया है, इसके लिए किसी औपचारिक अभिकरण की आवश्यकता नहीं है। ज्ञाताधर्मकथांग
ज्ञाताधर्मकथांग की कथाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि ज्ञान व्यक्ति को सज्जीवन की ओर प्रेरित करता है, वही शिक्षा है। ज्ञान चाहे सांसारिक हो या धार्मिक अथवा व्यावसायिक, यदि वह व्यक्ति तथा समाज के लिए हितकारी है तो उसे शिक्षा का अंग माना जाएगा, अन्यथा नहीं। वह सभी ज्ञान उपयोगी है, जो मनुष्य को सच्चरित्रता की ओर प्रेरित करे।
उपर्युक्त परिभाषाओं के विवेचन के पश्चात् कहा जा सकता है कि शिक्षा सतत चलने वाली एक ऐसी प्रक्रिया है जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है। इसके लिए किसी पाठशाला या मदरसे की आवश्यकता नहीं है यह तो वह गीता है जो कुरुक्षेत्र के समान ही जीवन रण में दी जा सकती है। प्रकृति का हर क्रियाकलाप शिक्षा देता है। शाला के अध्यापक का काम छात्र की आँखें खोलना है, वह इसलिए कि उसे हर वस्तु साफ-साफ दिखाई दे और वह विवेक की पगडंडी पर निर्भय होकर अग्रसर हो सके, जीवन के चरम लक्ष्य 'मुक्ति' को प्राप्त कर सके।
शिक्षा का स्वरूप
शिक्षा-माध्यम के विषय में वैदिक और जैन शिक्षा पद्धति लगभग समान रही है। दोनों में ही शिक्षा-प्रविधि उपदेशमूलक थी, अन्तर इतना ही था कि जैन मनीषियों ने अपने उपदेश लोक-भाषा में दिए, किसी भाषा विशेष के प्रति उनका आग्रह नहीं था। यद्यपि वैदिक प्रभाव के कारण खण्डन-मण्डन आदि के लिए न्याय-ग्रंथों तथा पुराणों आदि की रचना संस्कृत में भी की जाने लगी परन्तु जैन वाङ्मय के अधिकतर ग्रंथ अपने युग की लोकभाषा में ही लिखे गए।
जैनों तथा बौद्धों ने लौकिक विभूतियों को तिलांजलि दी और संन्यासी जीवन अपनाकर ज्ञान का अर्जन और वितरण किया। ज्ञाताधर्मकथांग की विभिन्न कथाओं में मेघकुमार, धन्य सार्थवाह, थावच्चापुत्र, महाबल34 और मल्ली भगवती आदि पात्रों ने भी संन्यासी जीवन अपनाकर ज्ञान का प्रचार-प्रसार किया। वे अपने ज्ञान का भण्डार जन-सामान्य में मुक्तहस्त से लुटाते थे।
213