________________
ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन जन्म, उनकी कठोर साधना, साधु-जीवन, उनके मूल उपदेश, उनकी विहारचर्या, शिष्य परम्परा, आर्यक्षेत्रों की सीमा, तत्कालीन राजा-महाराजा, अन्य तैर्थिक तथा मतमतान्तर और उनकी विवेचना सम्बन्धी जानकारी हमें यहाँ मिलती है। वास्तुशास्त्र, वैदिक शास्त्र, ज्योतिष, भूगोल-खगोल, संगीत, नाट्य, विविध कलाएँ, प्राणीविज्ञान, वनस्पति विज्ञान आदि अनेकानेक विषयों का यहाँ विवेचन किया गया है। इन सब विषयों के अध्ययन से तत्कालीन सांस्कृतिक इतिहास की अनेक त्रुटित शृंखलाएँ जोड़ी जा सकती हैं। दिगम्बर परम्परा और जैनागम
दिगम्बर मतानुसार वीर-निर्वाण के बाद श्रुत का क्रमशः ह्रास होते-होते 683 वर्ष के बाद कोई अंगधर या पूर्वधर आचार्य नहीं रहा। अंग और पूर्व के अंशमात्र के ज्ञाता आचार्य हुए। इन्हीं आचार्यों की परम्परा के दो आचार्योंपुष्पदंत और भूतबलि ने षट्खण्डागम की रचना दूसरे अग्रायणीय पूर्व के अंश के आधार से की और आचार्य गुणधर ने पाँचवें पूर्व-ज्ञान-प्रवाद के अंश के आधार से कषायपाहुड़ की रचना की। इन दोनों ग्रंथों को दिगम्बर आम्नाय में आगम का स्थान प्राप्त है। उसी प्रकार भूतबलि ने आचार्य महाबन्ध की रचना की। बाद में इन ग्रंथों पर आचार्य वीरसेन ने 'धवला' और 'जयधवला' टीका रची। ये टीकाएँ भी दिगम्बर परम्परा का मान्य है। दिगम्बर परम्परा का सम्पूर्ण साहित्य आचार्यों द्वारा रचित है। आचार्य कुन्द प्रणीत ग्रंथ- समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकायसार, नियमसार एवं अष्टपाहुड दिग. परम्परा में आगमवत मान्य है। आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्त चतुवर्ती के ग्रंथ-गोम्मटसार, लब्धिसार और द्रव्यसंग्रह आदि भी उतने ही प्रमाणभूत एवं मान्य हैं। आचार्य कुन्दकुन्द के ग्रंथों पर अमृतचन्द्राचार्य ने अत्यन्त प्रौढ़ एवं गंभीर टीकाएँ लिखी हैं। ऐसे ही मूलाराधना, भगवती आराधना एवं रत्नकरण्ड श्रावकाकार, तिलोयपण्णत्ति पद्मपुराण, हरिवंश पुराण आदि ग्रंथ भी इस परम्परा में आगमतुल्य स्तुत्य ग्रंथ हैं । दिगम्बर मतानुसार अंग और अंगबाह्य आगम लुप्त हो चुके हैं। ऐसा भी परम्परा में प्रचलित है कि अंगों का ज्ञान लुप्त हो गया है और पूर्वो का अंश विद्यमान है। श्वेताम्बर परम्परा और जैनागम
श्वेताम्बर परम्परानुसार महावीर निर्वाण सं. 160 वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र तथा 840 वर्ष बाद मथुरा में और इसी समय के आसपास वल्लभी में हुए संघ
20