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जैनागम एवं ज्ञाताधर्मकथांग जाता है। आचार्य भद्रबाहु ने आवश्यक नियुक्ति में लिखा है- तप, नियम, ज्ञानरूप, वृक्ष पर आरूढ़ होकर अनन्तज्ञानी केवली भगवान भव्य-आत्माओं के बोध के लिए ज्ञान-कुसुमों की वृष्टि करते हैं। गणधर व स्थविर अपने बुद्धिपट के उन कुसुमों का अवतरण कर प्रवचन माला में गूंथते हैं
"तवनियमनाणरूक्खं आरूढो केवली अभियनाणी।
तो मुयइ नाणवुटुिं भवियजण विवोहणट्ठाए।। तं बुद्धिमएण पडेण गणहरा गिणिउं निरवसेसं।
तित्थयरभासियाइं गंथंति तओ पवयणट्ठा।।" तीर्थंकर केवल अर्थरूप में उपदेश देते हैं और गणधर उसे ग्रंथबद्ध या सूत्रबद्ध करते हैं
अत्थं भासइ अरहा, सुत्तं गन्थन्ति गणहरा निउणं।
सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ ।। अर्थात्मक ग्रंथ के प्रणेता तीर्थंकर होते हैं, अतः जैनागम तीर्थंकर प्रणीत कहे जाते हैं। गणधर उन अर्थात्मक ग्रंथों से सूत्रात्मक रूप में द्वादशांगी की रचना करते हैं और स्थविर अंगबाह्य आगमों की रचना करते हैं। इस बात को
और अधिक पुष्ट करते हुए जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य की रचना के संबंध में लिखा है कि प्रविष्ट श्रुत वह है जो गणधरों द्वारा सूत्र रूप में ग्रंथित हो और अंगबाह्य श्रुत वह है जो स्थविर कृत हो। आगम वाचनाएँ
___ भगवान महावीर के निर्वाण के बाद उनके उपदेश श्रुत परम्परा से सुरक्षित रहे किन्तु कालान्तर में श्रुत परम्परा को अक्षुण्ण बनाए रखना असंदिग्ध नहीं रहा, अत: गणधरों ने उनके उपदेश-वचनों को आगम ग्रंथों के रूप में प्रस्तुत किया। वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं, उन्हें इस स्वरूप को प्राप्त करने में लम्बा समय लगा, इसके लिए जैनाचार्यों ने कई आगम-वाचनाएँ की, जिनका संक्षिप्त विवेचन इस प्रकार हैपाटलिपुत्र वाचना
श्वेताम्बर आम्नाय की मान्यता है कि आचारांग आदि बारह अंगों को सुरक्षित रखने के लिए जैन मुनियों ने समय-समय पर वाचनाएँ की। भगवान महावीर के निर्वाण से करीब 160 वर्ष बाद आचार्य स्थूलिभद्र ने अकालग्रस्त
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