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ज्ञाताधर्मकथांग में सामाजिक जीवन मोह ही प्रकट करती है।
माता सदैव अपने पुत्र का हित चिन्तन करती है। वह हमेशा उसका उत्कर्ष देखना चाहती है। ज्ञाताधर्मकथांग की 'शैलक' कथा में थावच्चा गाथा पत्नी के थावच्चापुत्र नामक एक ही पुत्र होते हुए भी वह उसे सहर्ष आज्ञा प्रदान कर दीक्षा का सत्कार करती है। यह माता का अपने पुत्र के प्रति अहोभाव है, उसके वात्सल्य का उत्कर्ष है।
राजा कनकरथ अपनी नवागन्तुक संतान को विकलांग कर देता था। एक बार जब उसकी पत्नी पद्मावती गर्भधारण करती है तब भविष्य की चिन्ता कर वह अमात्य तैतलिपुत्र के सहयोग से अपनी संतान को बचा लेती है और वही आगे चलकर राजा कनकरथ के बाद राजगद्दी पर आसीन होकर प्रजा का पालक बनता है। इससे स्पष्ट होता है कि प्रत्येक माता अपनी संतान को स्वस्थ-सुन्दर, बलवान, रूपवान, उत्कर्षमय देखना चाहती है। पति
हिन्दू संयुक्त परिवार में पति की विशेष प्रभुता थी। स्त्री की आजीविका और उसकी आर्थिक स्थिति पति पर ही निर्भर करती थी, इसलिए पति को 'भर्ता' की संज्ञा भी दी गई।
ज्ञाताधर्मकथांग में पति का व्यवहार पत्नी के प्रति सदैव सहृदयतापूर्ण, उदार और प्रशंसनीय रहा है। पत्नी कुटुम्ब की सम्मानित अंग थी, जो मानवीय, पूजनीय, अर्चनीय और गृह की शोभा थी। संतान की उत्पत्ति परिपालन और सांसारिक जीवन में प्रीति पत्नी से ही होती थी। मेघकुमार और देवदत्त के प्रसंग भी इसी बात की पुष्टि करते हैं।
__प्रायः सभी धर्मशास्त्रकारों ने नारी को उच्च स्थान प्रदान करते हुए उसके साथ पति को सर्वोत्तम व्यवहार करने का निर्देश दिया है किन्तु व्यवहार में पति अपनी विशेष स्थिति के कारण पत्नी के प्रति कटु, कठोर और निरंकुश रहा है, अपने अधिकारों का दुरुपयोग करता रहा है, प्रभुत्व के मद में वह अपने वास्तविक कर्त्तव्यों से च्युत होता रहा है। ज्ञाताधर्मकथांग में कनकरथ राजा को भय था कि कहीं उसकी संतान बड़ी होकर उसे सत्ताच्युत नहीं कर दे, इस प्रकार सत्ता में आसक्त कनकरथ राजा अपने नवजात पुत्र को विकलांग बना देता था। इसी प्रकार तैतलिपुत्र अपनी पत्नी पोट्टिला का नाम सुनना भी पसंद नहीं करता था- दर्शन और परिभोग की तो बात ही क्या?54 श्रेणिक का धारिणी के प्रति और
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