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ज्ञाताधर्मकथांग का सांस्कृतिक अध्ययन धन्यसार्थवाह का भद्रा के प्रति जैसा व्यवहार था वैसा व्यवहार करने वाला पति ही अपने दाम्पत्य जीवन को सरस, सुखमय और प्रेमपूर्ण बनाता है। पत्नी
वैदिक युग में पत्नी परिवार की अनिवार्य अंग थी। पत्नी की परिवार में महिमा थी, वह घर की रानी थी। वास्तव में पत्नी ही घर की आत्मा और प्राण थी। पति के साथ मिलकर वह सामाजिक और धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करती थी। ज्ञाताधर्मकथांग में धन्य सार्थवाह की पत्नी भद्रा पुत्र की कामना के लिए देवताओं की पूजा धन्य सार्थवाह की अनुमति से ही करती है।
__ श्रेष्ठ पत्नी वही होती है जो पति के अनुकूल, मृदुभाषी, दक्ष, स्वामिभक्त, साध्वी, आत्मगुप्ता, विनम्र और पति के चित्त की बात जानने वाली होती है। स्नेहशील, अदुष्टा और श्रेष्ठ आचरण करने वाली स्त्री ही पतिव्रता है। पत्नी न कभी उच्च स्वर में बोले, न कठोर स्वर से और न बहुत अधिक बोले। ये सभी गुण राजा श्रेणिक की पत्नी धारिणी रानी में श्रेणिक को स्वप्न सुनाते समय और दोहद' की बात बताते समय देखे जा सकते हैं।
मनु और याज्ञवल्क्य जैसे स्मृतिकारों ने गुणी पत्नी के लिए कहा है कि वह सर्वदा हंसमुख रहे, गृह की समस्त वस्तुएँ सुन्दर ढंग से रखे, गृहकार्य को दक्षतापूर्वक करे, अपव्यय न करे, पति के प्रिय कार्यों को करे, सास-ससुर की सेवा करे तथा सच्चरित्र और संयमपूर्वक रहे । जातक कथाओं में भी ऐसी पतिनिष्ठाओं के उदाहरण मिलते हैं जो अपने पति में अनुरक्त थी। __पति के अनुचित कार्य से पत्नियाँ नाराज, कुपित भी हो जाया करती थी और वह अपने पति से बात नहीं करती थी। ज्ञाताधर्मकथांग में उल्लेख मिलता है कि धन्य सार्थवाह की पत्नी भद्रा अपने पति से इसलिए नाराज हो जाती है कि धन्य सार्थवाह ने अपने पुत्रहन्ता विजयचोर को अपने भोजन में संभागिता दी।2
इस प्रकार पत्नी अपने धार्मिक और सामाजिक कार्यों द्वारा परिवार का विकास करती रही है और गृहिणी के रूप में उसका सामाजिक महत्व और सम्मान रहा है।
पुत्र
परिवार में पुत्र का बहुत अधिक महत्व रहा है क्योंकि उससे कुल और वंश का वर्द्धन और उत्कर्ष होता है। परिवार का प्रारम्भ विवाह से होता है और
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