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________________ का संग्राहक है, कर्म संसारी जीव का संग्राहक है । तात्पर्य यह है कि कर्म से बँधा हुआ जीव ही सशरीर होता है । वही चलता-फिरता व सोचता है । इस प्रकार संग्राह्य-संग्राहक भाव जीव व पुद्गल के सिवाय दूसरे द्रव्यों में नहीं होता है |23 लोक स्थिति को स्पष्ट करने के लिए भगवतीसूत्र 24 में दो दृष्टांत भी दिये गये हैं। यथा- जैसे कोई पुरुष चमड़े की मशक को वायु से फुलावे, फिर उस मशक का मुँह बाँध दे, फिर मशक के बीच के भाग में गांठ बांधे, फिर उस मशक का मुँह खोलकर ऊपर के भाग की हवा निकाल कर उस खाली भाग में पानी भर दे और मशक का मुँह बंद कर दे और बीच की गांठ भी खोल दे, तो वह भरा पानी जिस तरह हवा के ऊपर तल में ही रहेगा वैसे ही लोक की आठ प्रकार की स्थिति बताई गई है। दूसरा दृष्टांत देते हुए कहा है कि जैसे कोई पुरुष चमड़े की मशक को हवा से फुलाकर अपनी कमर में बांध ले और अथाह दुस्तर पुरुष परिमाण से अधिक पानी में प्रवेश करे तब भी वह पुरुष पानी की ऊपरी सतह पर रहेगा । इसी तरह लोक की स्थिति आठ प्रकार की है । ऊपर के उदाहरणों द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि वायु के आधार पर उदधि कैसे टिका हुआ हुआ है। लोक का परिमाण 25 I भगवतीसूत्र में लोक को महातिमहान् कहा गया है । उसका परिमाण बताते हुए कहा गया है कि वह पूर्वदिशा में भी असंख्येय कोटा - कोटि योजन है। पश्चिम, उत्तर एवं ऊर्ध्व और अधोदिशा में भी असंख्येय कोटा- कोटि योजन आयाम विष्कम्भ (लम्बाई-चौड़ाई) वाला है । इस इतने बड़े लोक में एक परमाणुपुद्गल जितना भी आकाश-प्रदेश नहीं है, जहाँ कि जीव ने जन्म-मरण न किया हो अर्थात् यह महातिमहान् लोक सम्पूर्ण रूप से जीवों से भरा हुआ है । समस्त लोक का परिमाण बताते हुए आगे क्षेत्रलोक के तीनों प्रकार अधोलोक, तिर्यग्लोक व ऊर्ध्वलोक के परिमाण की तुलना भी की गई है। सबसे छोटा तिर्यग्लोक है । उससे ऊर्ध्वलोक असंख्यात गुणा है और उससे अधोलोक विशेषाधिक है | 26 भगवतीवृत्ति 27 में इसे समझाते हुए कहा गया है कि तिर्यग्लोक सबसे छोटा है, क्योंकि यह केवल 1800 योजन लम्बा है, जबकि ऊर्ध्वलोक की अवगाहना 7 रज्जू में कुछ कम है इसलिए वह तिर्यग्लोक से असंख्यात गुणा बड़ा है और अधोलोक सबसे अधिक बड़ा है, क्योंकि उसकी अवगाहना कुछ अधिक 7 रज्जू परिमाण है। इसलिए वह ऊर्ध्वलोक से कुछ विशेषाधिक है । प्रशमरति 28 में लोक के आकार का विवेचन करते हुए कहा गया है- यह लोक पुरुष है। अपने दोनों हाथ कमर पर रखकर दो पैर फैलाकर खड़े पुरुषाकार लोक-स्वरूप 71
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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