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________________ ऊर्ध्वलोक क्षेत्रलोक-ऊँचे व शुभ परिणामों की वजह से इसका ऊर्ध्वलोक नाम है। ऊर्ध्वलोक में मुख्य रूप से देवों का निवास है। अतः इसे देवलोक, ब्रह्मलोक, यक्षलोक व स्वर्गलोक भी कहते हैं।18 भगवतीसूत्र में ऊर्ध्वलोकक्षेत्रलोक पन्द्रह प्रकार का बताया गया है 1. सौधर्मकल्प, 2. ऐशानकल्प, 3. सनत्कुमार, 4. माहेन्द्र, 5. ब्रह्मलोक, 6. लान्तक, 7. महाशुक्र, 8. सहस्त्रार, 9. आनत, 10. प्राणत, 11. आरण, 12. अच्युतकल्प, 13. ग्रैवेयकविमान, 14. अनुत्तरविमान, 15. ईषतप्राग्भारपृथ्वी। लोक का संस्थान ___ लोक के संस्थान को स्पष्ट करने के लिए पहले भगवतीसूत्र में लोक के तीनों भागों (अधो, मध्य व ऊर्ध्व लोक) के संस्थान को स्पष्ट किया गया है। अधोलोक-क्षेत्रलोक तिपाई (त्रपा) के आकार का बताया गया है, तिर्यग्लोकक्षेत्रलोक झालर के आकार का तथा ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक को ऊर्ध्वमृदंग के आकार का बताया गया है। सम्पूर्ण लोक-अलोक के संस्थान को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि लोक सुप्रतिष्ठिक के आकार का है वह नीचे विस्तीर्ण (चौड़ा) है, मध्य में संक्षिप्त (सकड़ा) है व ऊपर ऊर्ध्व मृदंग के आकार का है। अलोक का संस्थान पोले गोले के आकार का है। तिलोयपण्णत्ति20 में भी तीनों लोक का संस्थान इसी प्रकार बताते हुए कहा गया है, 'अधोलोक का आकार स्वभाव से वेत्रासन सदृश्य है, मध्यलोक का आकार खड़े हुए मृदंग के ऊर्ध्व भाग के सदृश्य है तथा ऊर्ध्वलोक का आकार खड़े किये हुए अर्द्धमृदंग के सदृश्य है।' धवला में लोक को तालवृक्ष के आकार वाला कहा गया है। अष्टविध लोक स्थिति लोक की स्थिति आठ प्रकार की बताई गई है- अट्ठविहा लोयद्विती पण्णत्ता - (1.6.25) यह इस प्रकार है- 1. आकाश के आधार पर वायु है, 2. वायु के आधार पर उदधि है, 3. उदधि के आधार पर पृथ्वी है, 4. पृथ्वी के आधार पर त्रस व स्थावर जीव हैं, 5. अजीव जीवों के आधार पर हैं, 6. जीव कर्मों के आधार पर हैं, 7. अजीवों (कर्मों) को जीवों ने संग्रहित कर रखा है, 8. जीवों को कर्मों ने संग्रहित कर रखा है। निःसन्देह आकाश, पवन, जल व पृथ्वी विश्व के आधारभूत अंग हैं। विश्व की व्यवस्था इन्हीं के आधार-आधेय भाव से बनी हुई है। संसारी जीव और अजीव में आधार-आधेय भाव व संग्राहक-सग्राह्य भाव- ये दोनों हैं। जीव आधार है और शरीर उसका आधेय। जीव-अजीव (भाषा, मन, शरीर, वर्गणा) 70 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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