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हुए भगवान् महावीर कहते हैं- द्रव्य दृष्टि से लोक एक है और अन्तवाला है, क्षेत्र दृष्टि से लोक असंख्य कोड़ा-कोड़ी योजन की परिधि वाला है तथा वह अन्त सहित है, क्योंकि लोक के बाहर अलोक है। काल दृष्टि से ऐसा कोई काल नहीं था, जिसमें लोक नहीं था, ऐसा कोई काल नहीं है, जिसमें लोक नहीं है और न ही ऐसा कोई काल होगा जिसमें लोक नहीं होगा। अतः ध्रुव, नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित व नित्य होने से काल की दृष्टि से लोक अन्त रहित है। भाव की दृष्टि से वर्ण, रस, स्पर्श, गंधादि अनन्त पर्यायरूप अनन्त संस्थान रूप व अनन्त गुरुलघुपर्यायरूप व अनन्त अगुरुलघुपर्यायरूप होने से लोक अन्त रहित है। इस प्रकार द्रव्य व क्षेत्र की दृष्टि से लोक को अंतसहित व काल व भाव की दृष्टि से लोक को अंतरहित बताया गया है। क्षेत्रलोक के भेद-प्रभेद14
भगवतीसूत्र में क्षेत्रलोक के तीन प्रकार बताये हैं। 1. अधोलोक-क्षेत्रलोक, 2. तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक, 3. ऊर्ध्वलोक-क्षेत्रलोक
अधोलोक-क्षेत्रलोक- क्षेत्र के प्रभाव से इस लोक में द्रव्यों के प्रायः अशुभ (अधः) परिणाम होते हैं, इसलिए इसका अधोलोक नाम सार्थक है। अधोलोक के सात प्रकार बताये गये हैं
__1. रत्नप्रभा, 2. शर्कराप्रभा, 3. बालुकाप्रभा, 4. पंकप्रभा, 5. धूमप्रभा, 6. तमप्रभा, 7. महातमप्रभा
ये सातों पृथ्वियाँ सात नरकों के नाम से जानी जाती हैं। इनमें मुख्य रूप से नरक के जीव रहते हैं। इनकी लम्बाई-चौड़ाई एक सी नहीं है, नीचे की भूमियाँ ऊपर-ऊपर की भूमियों से अधिक चौड़ी हैं। ये भूमियाँ एक दूसरे से सटी हुई नहीं हैं। बीच-बीच में बहुत अन्तराल है। इस अन्तराल में घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश हैं।
तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक- इस लोक में स्वयम्भूरमण पर्यन्त असंख्यात द्वीप समुद्र तिर्यक् समभूमि पर तिरछे व्यवस्थित हैं अतः इसे तिर्यग्लोक कहते हैं। मध्यम परिणाम होने से यह मध्यम लोक भी कहलाता है। उत्तराध्ययन” में मध्यलोक को तिर्यग्लोक कहा गया है। तिर्यग्लोक-क्षेत्रलोक असंख्य प्रकार का बताया गया है अर्थात् इसमें असंख्यात जंबूद्वीप आदि शुभ नाम वाले द्वीप व लवण, स्वयंभूरमण आदि समुद्र हैं। इतने विशाल क्षेत्र में केवल अढ़ाई द्वीप में ही मानव का निवास माना गया है।
लोक-स्वरूप