SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उसके स्वरूप की प्ररूपणा है। उत्तराध्ययन में लोक को षड्द्रव्यात्मक बताया गया है। यथा धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गल - जंतवो। एस लोगो त्ति पन्नत्तो, जिणेहि वरदंसिहि ।। (28.7) अर्थात् जिनेन्द्रों द्वारा यह लोक धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव व पुद्गल रूप कहा गया है। इन छ: द्रव्यों में से काल को छोड़कर शेष पाँच द्रव्य अस्तिकाय कहे गये हैं। अस्तिकाय से तात्पर्य है कि ये द्रव्य सप्रदेशी या सावयवी हैं। काल के प्रदेश नहीं होते हैं। इसलिए उसे अस्तिकाय नहीं कहा गया है। यही कारण है कि कहीं कहीं लोक को पंचास्तिकाय रूप भी कहा गया है। आचार्य कुंदकुंद ने पंचास्तिकाय में लोक को पाँच अस्तिकायों का समूह माना है। गोम्मटसार' में षड्द्रव्यात्मक रूप लोक का समर्थन किया गया है। इस प्रकार जैन परंपरा में कहीं लोक को पंचास्तिकाय रूप व कहीं षड्द्रव्यात्मक रूप में स्वीकार किया गया है। इन प्राचीन ग्रंथों के आधार पर ही आधुनिक आचार्यों ने लोक के स्वरूप एवं उसके आधारभूत तत्त्वों का विवेचन अपने ग्रंथों में किया है। भगवतीसूत्र में लोक-स्वरूप भगवतीसूत्र में लोक की परिभाषा भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से की गई है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से लोक की परिभाषा देते हुए कहा गया है- जे लोक्कड़ से लोए - (5.9.14) अर्थात् जो देखा जाता है, वह लोक है। चूंकि इस लोक में पुद्गल-द्रव्य मूर्त रूप हैं, उनकी उत्पत्ति, व्यय, परिणमन आदि हमें दिखाई देते हैं, अतः लोक का नामकरण प्रत्यक्षभूत पुदगल-द्रव्य के आधार पर देखा जाने वाला' किया गया है। राजवार्तिक' में भी कहा गया है कि जहाँ पाप व पुण्य का फल जो सुख-दुख रूप है, वह देखा जाता है सो लोक है। इस व्युत्पत्ति के आधार पर लोक का अर्थ आत्मा से है। ___ व्यवस्था की दृष्टि से लोक की परिभाषा देते हुए उसे पाँच अस्तिकायों का समूह कहा गया है- किमियं भंते! लोए त्ति पवुच्चइ? पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोएत्ति पवुच्चइ,तंजहा-धम्मऽस्थिकाए,अधम्मऽत्थिकाए,जाव पोग्गलऽस्थिकाए - (13423) अर्थात् पाँच अस्तिकायों का समूह लोक है, वे हैं___1. धर्मास्तिकाय, 2. अधर्मास्तिकाय, 3. आकाशास्तिकाय, 4. जीवास्तिकाय, 5. पुद्गलास्तिकाय। अन्यत्र लोक का षड्व्व्यात्मक रूप भी स्वीकार किया है। यहाँ सर्वद्रव्य के छः भेद बताये हैं1० - लोक-स्वरूप 67
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy