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लोक-स्वरूप
जब से सभ्यता का विकास हुआ और व्यक्ति ने सोचना आरम्भ किया, उसके मन में कई प्रश्न उठने लगे- मैं कौन हूँ? कहाँ से आया हूँ? यह जगत क्या है? यह किससे बना है? आदि। इन्हीं प्रश्नों के उत्तर खोजते हुए दार्शनिक चिन्तन प्रवाहित हुआ। जब इस चिन्तन का प्रवाह भीतर की ओर था तो व्यक्ति ने आत्मा के विषय में सोचना शुरू किया और जब उसने जगत, सृष्टि आदि के निमित्त कारणों के विषय में सोचा तो लोकवाद की परम्परा प्रारम्भ हुई।
भारतीय दर्शन में कई स्थानों पर लोक के स्वरूप व उसके आधारभूत तत्त्वों के सम्बन्ध में चर्चा मिलती है। ऋग्वेद' का दीर्घतमा ऋषि विश्व की उत्पत्ति के मूल कारणों की खोज करता हुआ स्वयं से प्रश्न करता है कि इस विश्व की उत्पत्ति कैसे हुई? इसे कौन जानता है? इन जिज्ञासाओं के आधार पर ही परवर्ती आचार्यों ने लोक के स्वरूप पर अनेक विचार व्यक्त किये। विष्णु-पुराण के द्वितीयांश के द्वितीयाध्याय में लोक के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा प्राप्त होती है। बौद्ध परम्परा में भी लोक के स्वरूप पर अपने ढंग से विचार किया गया और दस लोक स्वीकार किये गये हैं। जैन परम्परा में लोक ___ जैन परम्परा में विश्व के लिए 'लोक' शब्द का प्रयोग हुआ है। जैन दार्शनिकों व चिन्तकों ने लोक के स्वरूप व उसके आधार-भूत तत्त्वों पर विस्तार से विचार किया है। इसका पूर्ण विवरण प्राचीन जैनागमों व परवर्ती सूत्र ग्रंथों में मिलता है। जैन अर्धमागधी आगम साहित्य के प्रथम अंग ग्रंथ आचारांग' के प्रारंभ में यही प्रश्न उठाया गया है कि कुछ प्राणियों को यह ज्ञान नहीं है कि मैं पूर्व दिशा से आया हूँ या दक्षिण दिशा से आया हूँ, पश्चिम दिशा से आया हूँ या उत्तर दिशा से आया हूँ। आचारांग में उठाया गया यह प्रश्न हमें स्वतः लोक के स्वरूप के विषय में जानने को प्रेरित करता है। उत्तराध्ययन, तिलोयपण्णत्ति आदि ग्रंथों में लोक के स्वरूप के विषय में विस्तृत चर्चा की गई है। तत्त्वार्थसूत्र में भी लोक के आधारभूत द्रव्यों व 66
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन