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________________ धार्मिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया है। सिद्धान्त जब आचार में परिणित हो जाते हैं तभी धर्म प्रारम्भ होता है। इस दृष्टि से प्रस्तुत आगम में उसी व्यक्ति को सच्चा आराधक बताया है, जो ज्ञानवान होने के साथ-साथ शीलवान (चारित्रवान) भी हो- तत्थ णं जे से तच्चे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं; सुयवं; उवरए विण्णायधम्मे, एस णं गोयमा! मए पुरिसे सव्वाराहए पण्णते - (8.10.2) अर्थात् जो पुरुष शीलवान भी है और श्रुतवान भी है वह व्यक्ति पापादि से उपरत और धर्म का विज्ञाता भी है। हे गौतम! इस प्रकार के पुरुष को मैं सर्वआराधक कहता हूँ। वस्तुतः साधना की पूर्णता के लिए श्रुत व शील दोनों आवश्यक हैं। तत्त्वार्थसूत्र में इसी मान्यता का समर्थन करते हुए कहा है- सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्ग - (1.1)। प्रस्तुत ग्रंथ में आचार की श्रेष्ठता को प्रतिपादित करते हुए जगह-जगह श्रमणों के उत्कृष्ट आचार एवं चर्या का प्रतिपादन किया गया है। श्रमण चर्या की दृष्टि से स्कन्दक परिव्राजक का पूरा प्रकरण दृष्टव्य है। श्रमण जीवन के सुखों को अन्य किसी भी प्रकार के दैवीय सुखों की तुलना में श्रेष्ठतर बताया है। इस ग्रंथ का धार्मिक महत्त्व इस दृष्टि से भी बढ़ जाता है कि यह ग्रंथ जैन धर्म के सिद्धान्तों को ही प्रतिपादित नहीं करता है अपितु प्रसंगवश अन्य धर्मों के सिद्धान्तों का विवेचन भी इसमें है। यह पद्धति इस बात की ओर संकेत करती है कि उस युग में कट्टर साम्प्रदायिकता का अभाव था। विभिन्न धर्मों के मतावलम्बी आपस में तत्त्वचर्चा कर अपनी जिज्ञासाओं को एक दूसरे के समक्ष रखकर समाधान प्राप्त करते थे। आध्यात्मिक शक्तियाँ __ आध्यात्मिक दृष्टि से भगवतीसूत्र में कुछ ऐसी शक्तियों का वर्णन हुआ है, जिन्हें साधक आध्यात्मिक साधना के द्वारा प्राप्त कर सकता था और इन शक्तियों के अर्जन द्वारा वह किसी के भी अन्तर्मानस की बात जान सकता था और विविध रूपों का सृजन कर सकता था। ग्रंथ के सातवें शतक के 9वें उद्देशक में बताया है कि प्रमत्त श्रमण ही विविध प्रकार के विविध रंग के रूप बनाता है। वह चाहे जिस रूप में वर्ण, गंध, रस और स्पर्श में परिवर्तित कर सकता है। ग्रंथ के 20वें शतक के 9वें उद्देशक में 'चारणलब्धि' का उल्लेख हुआ है। यह चारणलब्धि दो प्रकार की होती है- 1. विद्याचारण, 2. जंघाचारण। विद्याचारणलब्धि वाला मुनि तीन बार चुटकी बजाने जितने समय में तीन लाख, सोलह हजार दो सौ सत्ताईस योजन परिधि वाले जम्बूद्वीप में तीन बार प्रदक्षिणा कर लेता है तथा जंघाचारणलब्धि 60 भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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