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________________ तत्त्वविषयक प्रश्नों के उत्तर देने में श्रमण भगवान् महावीर ने जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्त अनेकान्तवाद का ही सहारा लिया है। स्कन्दक परिव्राजक के प्रसंग में लोक सान्त है या अनन्त, जीव सान्त है या अन्त रहित, सिद्ध अन्त सहित है या अन्त रहित आदि प्रश्नों के उत्तर अनेकान्त शैली में ही प्रस्तुत किये गये हैं। यहाँ भगवान् महावीर ने प्रश्न का उत्तर विभाग करके दिया है। यह उनकी अनेकान्त दृष्टि को प्रदर्शित करता है। लोक को शाश्वत और अशाश्वत दोनों ही रूपों में स्वीकार कर भगवान् महावीर ने तत्कालीन दार्शनिक जगत में प्रचलित विरोधी मान्यताओं में समन्वय स्थापित करने का अनूठा प्रयास किया है। यही कारण है कि आचारांगसूत्र जहाँ भगवान् महावीर को एक महान तपस्वी के रूप में चित्रित करता है। वहीं भगवतीसूत्र उन्हें एक श्रेष्ठ दार्शनिक के रूप में मान्यता प्रदान करता है। भगवान् महावीर की अनेकान्त दृष्टि विशाल थी। उन्होंने गौतम गणधर तथा अपने अन्य शिष्यवर्ग के प्रश्नों का ही समाधान प्रस्तुत नहीं किया अपितु अन्य परम्पराओं यथा- कालास्यवेशी आदि पार्श्व-परम्परा के श्रमण, गोशालक, जमालि, परिव्राजक, तापस आदि सभी की जिज्ञासाओं को तर्कपूर्ण समाधान द्वारा शांत कर स्वमत का प्रतिपादन किया है। अनेकान्त शैली में दिये गये इतने प्रश्नोत्तर अन्य किसी आगम ग्रंथ में उपलब्ध नहीं हैं। संभवतः भगवान् महावीर द्वारा प्रतिपादित इस अनेकान्त शैली को ही बाद के आचार्यों ने विकसित कर जैन-दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त अनेकान्तवाद का प्रतिपादन किया। भगवतीसूत्र का दार्शनिक दृष्टि से महत्त्व इसलिए भी बढ़ जाता है कि प्रस्तुत ग्रंथ में अन्य दार्शनिकों के मत व सिद्धान्तों का भी प्रतिपादन हुआ है। 'समवसरण' नामक अध्याय में क्रियावादी, अक्रियावादी, विनयवादी व अज्ञानवादी इन चार दार्शनिक मतों का उल्लेख है। आजीविक मत का जितना विस्तार से इस ग्रंथ में वर्णन हुआ है अन्यत्र नहीं मिलता है। इसके अतिरिक्त परिव्राजक, तापस, चरक, पार्श्व-परम्परा के अनुयायी तथा अन्यतीर्थिंकों की मान्यताओं का भी भगवतीसूत्र में निरूपण है। धार्मिक महत्त्व __ जैन परम्परा में 'आचार: परम धर्मः' इस मान्यता को बहुत महत्त्व दिया गया है। जैन धर्म के प्रमुख सिद्धान्तों को विवेचित करने के कारण इस ग्रंथ का अपना धार्मिक महत्त्व भी है। अर्थ रूप में इसके प्रणेता तीर्थंकर महावीर हैं, जिन्होंने पहले स्वयं के जीवन को त्याग व वैराग्य के माध्यम से शुद्ध किया तत्पश्चात् भगवतीसूत्र का महत्त्व 59
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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