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महत्त्व दिया गया है। वहाँ अनुशासन का अर्थ शुश्रूषा, सदाचार अथवा शिष्टाचार से है। भगवतीसूत्र में भी विनय के सात प्रकारों का वर्णन हुआ है1. ज्ञान-विनय 2. दर्शन-विनय 3.चारित्र-विनय 4. मन-विनय, 5. वचन-विनय 6. काय-विनय 7.लोकोपचार-विनय।
उत्तराध्ययन के द्वितीय अध्ययन में 22 परीषहों के नाम व स्वरूप का वर्णन है। भगवतीसूत्र में 22 परीषहों के नामों का उल्लेख करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि किन कर्मप्रकृतियों के कारण कौन से परीषह होते हैं। उत्तराध्ययन के तेतीसवें अध्ययन में 'कर्मप्रकृति' का वर्णन है। भगवतीसूत्र में भी आठ कर्मप्रकृतियों का विवेचन किया गया है।
उत्तराध्ययन38 में लोक को धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव व पुद्गल इन छः द्रव्यों का समूह बताया गया है। भगवतीसूत्र में लोक को पंचास्तिकाय रूप माना है। उत्तराध्ययन के छत्तीसवें अध्ययन में जीव-अजीव के स्वरूप को स्पष्ट किया है। भगवतीसूत्र में भी जीव द्रव्य व अजीव द्रव्य के स्वरूप, भेद-प्रभेद आदि का विस्तार से निरूपण है। उत्तराध्ययन में श्रमण के आचार का वर्णन करते हुए क्रोध, मान, माया व लोभ इन कषायों को त्यागने का निर्देश दिया गया है। भगवतीसूत्र-1 में भी अक्रोध, अमान, अमाया व अलोभ को श्रमण के लिए प्रशस्त बताया गया है। इसके अतिरिक्त ज्ञान, पांच समिति, तीन गुप्ति, तप, मरण के प्रकार आदि अनेक विषय हैं, जिनका दोनों ही ग्रंथों में विवेचन है। वस्तुतः उत्तराध्ययन में पद्यात्मक रूप में जो सामग्री विवेचित है वह प्रायः गद्यात्मक रूप में भगवतीसूत्र में देखी जा सकती है। संदर्भ 1. आचारांग नियुक्ति, 16 2. आचारांग, सम्पा. मुनि मधुकर, 1.2.2.69-74 3. "से जहा वि अणगारे उज्जुकडे णियागपडिवण्णे अमायं कुव्वमाणे वियाहिते।'
- वही, 1.1.3.19 वही, 1.2.5.91, 87 व्या. सृ., 1.9.17., 18, 1.1.11 वही, 7.1.17-20 'परिण्णे सण्णे उवमा ण विज्जति अरूवी अपदस्स पदं णत्थि'-आचारांग सम्पा. मुनि,
मधुकर, 1.5.6.176, पृ. 188 8. व्या. सू., 30.1.1
वही, 8.10.2 सूत्रकृतांग, द्वितीय श्रुतस्कन्ध, सम्पा. मुनि मधुकर, अध्ययन 6
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन