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________________ जाते हैं। द्वादशांग में दृष्टिवाद बारहवां अंग था। उसका एक विभाग पूर्वगत है। चौदह पूर्व इसी पूर्वगत के अन्तर्गत हैं। इन चौदह पूर्वो में भगवान् महावीर से पूर्व की अनेक विचारधाराओं, मत-मतान्तरों तथा ज्ञान-विज्ञान का संकलन उनके शिष्य गणधरों द्वारा किया गया था। ___नंदीसूत्र” में चौदह पूर्वो के नाम इस प्रकार दिये गये हैं1. उत्पादपूर्व 2. अग्रायणीयपूर्व 3. वीर्यप्रवादपूर्व 4. अस्ति-नास्ति-प्रवादपूर्व 5. ज्ञानप्रवादपूर्व 6. सत्यप्रवादपूर्व 7. आत्मप्रवादपूर्व 8. कर्मप्रवादपूर्व 9. प्रत्याख्यानपूर्व 10. विद्यानुप्रवादपूर्व 11. अबन्ध्यपूर्व 12. प्राणायुप्रवादपूर्व 13. क्रियाविशालपूर्व 14. लोकबिन्दुसारपूर्व जैन परम्परा के अनुसार श्रमण भगवान् महावीर ने सर्वप्रथम पूर्वगत अर्थ का निरूपण किया था और उसे ही गौतम प्रभृति गणधरों ने पूर्वश्रुत के रूप में निर्मित किया था। किन्तु, पूर्वगत श्रुत अत्यंत क्लिष्ट और गहन था, उसे साधारण अध्येता समझ नहीं सकता था, इसलिए अल्पमेधावी व्यक्तियों के लिए आचारांग आदि अन्य अंगों की रचना की। जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण8 ने लिखा है- 'दृष्टिवाद में समस्त शब्दज्ञान का अवतार हो जाता है, तथापि ग्यारह अंगों की रचना अल्प मेधावी पुरुषों और महिलाओं के लिए की गई है।' जो श्रमण प्रबल प्रतिभा के धनी होते थे, वे पूर्वो का अध्ययन करते थे और जिनमें प्रतिभा की तेजस्विता नहीं होती थी, वे ग्यारह अंगों का अध्ययन करते थे। आगम साहित्य में पूर्वो का अध्ययन करने वाले तथा ग्यारह अंगों का अध्ययन करने वाले दोनों ही प्रकार के साधकों का वर्णन मिलता है। कहने का तात्पर्य यही है कि जब तक आचारांग आदि ग्रंथों की रचना नहीं हुई उससे पहले रचे गये चतुर्दशशास्त्र चौदह पूर्व के नाम से विख्यात हुए। फिर पूर्व ज्ञान के आधार पर द्वादशांगी की रचना हुई। लेकिन फिर भी पूर्वज्ञान को छोड़ देना संभवतः आचार्यों को ठीक प्रतीत नहीं हुआ अतः बारहवें अंग दृष्टिवाद में उस ज्ञान को सन्निविष्ट कर दिया गया। दृष्टिवाद पाँच भागों में विभक्त है 1. परिकर्म, 2. सूत्र, 3. पूर्वानुयोग, 4. पूर्व, 5. चूलिका चौथे विभाग 'पूर्व' में 'चौदह पूर्व' के ज्ञान का समावेश है। इस दृष्टि से जो चतुर्दशपूर्वी होते हैं वे द्वादशांगी के ज्ञाता भी होते हैं। इस प्रकार अंग साहित्य की रचना के बाद चौदह पूर्वो को बारहवें अंग ‘दृष्टिवाद' का नाम दे दिया गया। भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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