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कहा है कि जिस बात को तीर्थंकर ने कहा है उस बात को श्रुतकेवली. सकता है। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं । अंग बाह्य आ रचना स्थविर करते हैं । यहाँ कहने का तात्पर्य यही है कि जैन परम्परा में की प्रामाणिकता केवल गणधर अथवा स्थविरकृत होने से ही नहीं है अपितु उनके अर्थरूप में प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता एवं सर्वज्ञता से है।
आगम के पर्याय
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जैन परम्परा में प्राचीनकाल में गुरु के श्री मुख से ही शिष्य ज्ञान प्राप्त करते थे । फिर यह परम्परा उनके शिष्य-प्रशिष्यों तक चलती थी । अतः प्राचीन काल में आगम शब्द के लिए ' श्रुत' शब्द का प्रयोग ही हुआ है, जिसका अर्थ है सुना हुआ । नंदीसूत्र 27 में आगम के लिए 'श्रुत' शब्द का प्रयोग हुआ है । स्थानांग 28 में आगमज्ञाताओं के लिए' श्रुतकेवली' व' श्रुतस्थविर' संज्ञा मिलती है । अनुयोगद्वार 29 व विशेषावश्यकभाष्य में आगम के लिए सूत्र, ग्रंथ, सिद्धांत, शासन, प्रवचन, आज्ञा, उपदेश, प्रज्ञापना आदि शब्दों का प्रयोग हुआ है। आचार्य उमास्वाति ने अपने ग्रंथ तत्त्वार्थभाष्य'" में श्रुत, आप्तकथन आगम, उपदेश, ऐतिह्य, आम्नाय, प्रवचन, जिनवचन आदि शब्दों को आगम कहा है । भगवतीसूत्र 2 में आगम के लिए 'प्रवचन' शब्द का प्रयोग करते हुए कहा गया है कि अरिहंत प्रवचनी है और द्वादशांग प्रवचन है। आवश्यकनिर्युक्ति में भी प्रवचन शब्द का प्रयोग आगम के लिए हुआ है । पूर्व साहित्य
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जैनागमों का प्राचीनतम वर्गीकरण 'समवायांग 34 में प्राप्त होता है । वहाँ साहित्य को दो भागों में विभाजित किया गया है- पूर्व व अंग । पूर्व की संख्या चौदह तथा अंग की संख्या बारह बताई गई है । 'पूर्व श्रुत' जैन आगम साहित्य की अनुपम ज्ञान निधि है । कोई भी ऐसा विषय नहीं जिसकी चर्चा इनमें न की गई हो । पूर्व - साहित्य के रचनाकाल को लेकर विद्वानों में मतभेद है। आचार्य अभयदेवसूरि आदि के मतानुसार द्वादशांगी से पहले पूर्व श्रुत निर्मित किया गया था । अतः उसका नाम पूर्व पड़ा 35 कुछ चिंतकों की यह धारणा है कि पूर्व ग्रंथ भगवान् पार्श्वनाथ की श्रुत परम्परा से सम्बन्धित हैं, अतः श्रमण भगवान् महावीर से पूर्ववर्ती होने के कारण इन ग्रंथों का नाम पूर्व पड़ा 16
उक्त विवेचन से यह तो स्पष्ट हो ही जाता है कि पूर्वों की रचना द्वादशांगवाणी से पहले की गई है। लेकिन वर्तमान समय में पूर्व द्वादशांगी से पृथक् नहीं माने
तीर्थंकर व आगम - परम्परा
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