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का शाब्दिक अर्थ हुआ । शास्त्रीय दृष्टिकोण से आगम शब्द का प्रयोग र से मिलता है। आचारांग 20 में आगम शब्द का प्रयोग जानने या ज्ञान के अथ हुआ है । भगवतीसूत्र 21 में प्रमाण के चार भेदों में चौथा भेद ' आगम' स्वीकार किया गया है । यहाँ आगम शब्द का प्रयोग प्रमाण- ज्ञान के अर्थ में हुआ है।
समय-समय पर आचार्यों ने आगम की भिन्न-भिन्न परिभाषाएँ दी हैं । आगम की सर्वाधिक लोकप्रिय परिभाषा अनेक ग्रंथों में प्राप्त होती है, वह है, 'आप्त वचन से उत्पन्न अर्थज्ञान आगम है । उपचार से आप्त वचन भी आगम माना जाता है ।' न्यायसूत्र में कहा गया है- आप्तोपदेश : शब्द (1.1.7) आप्त का कथन आगम है । जिन्होंने राग-द्वेष को जीत लिया है, वे तीर्थंकर, सर्वज्ञ, जिन वीतराग भगवान् ही आप्त हैं तथा उनके उपदेश या उनकी वाणी आगम कहलाती है 1 तत्त्वज्ञान की दृष्टि से आगम की निम्न परिभाषाएँ भी दृष्टव्य हैं 22(क) जिससे पदार्थों का यथार्थ ज्ञान हो, वह आगम है।
(ख) जिससे पदार्थों का परिपूर्णता के साथ मर्यादित ज्ञान हो, वह आगम है । (ग) जिससे वस्तुतत्त्व का परिपूर्ण ज्ञान हो, वह आगम है।
(घ) जो तत्त्व आचार परम्परा से वासित होकर आता है, वह आगम है I (ङ) जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है, विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, वह शास्त्र आगम या श्रुतज्ञान कहलाता है ।
उपर्युक्त परिभाषाओं के आधार पर आगम का स्वरूप स्पष्ट हो जाता है। जैन परम्परा में आगम ग्रंथ साक्षात तीर्थंकर के कथन के समान माने गये हैं, चाहे वे गणधर कृत हों या श्रुतकेवली स्थविर कृत हों। दोनों में ही पदार्थ के रहस्य पर प्रकाश डाला गया है। निर्युक्तिकार भद्रबाहु 23 कहते हैं कि 'तप, नियम तथा ज्ञान रूपी वृक्ष के ऊपर आरूढ़ होकर अनंतज्ञानी 'केवली' भगवान् भव्यात्माओं के विबोध के लिए ज्ञान - कुसुमों की वृष्टि करते हैं । गणधर अपने बुद्धि - -पट में उन सकल कुसुमों को झेलकर प्रवचन माला गूंथते हैं । अर्थात् तीर्थंकर केवल अर्थरूप में उपदेश देते हैं, गणधर उसे ग्रंथबद्ध या सूत्रबद्ध करते हैं । नंदीसूत्र 24 में जैनागमों को तीर्थंकर प्रणीत कहा गया है।
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इस प्रकार तीर्थंकर, जिन अथवा वीतराग भगवान् के उपदेश गणधरों द्वारा सूत्रबद्ध होकर आगम रूप धारण करते हैं । जैन अनुश्रुति के अनुसार गणधर के समान ही अन्य प्रत्येक बुद्ध निरूपित आगम भी प्रमाण हैं । 25 बृहत्कल्पभाष्य" में
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन
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