________________
1. ज्ञानान्तर, 2. दर्शनान्तर, 3. चारित्रान्तर, 4. लिंगान्तर 5. प्रवचनान्तर, 6. प्रावचनिकान्तर, 7. कल्पान्तर, 8 मार्गान्तर, 9 मतान्तर 10. भंगान्तर, 11. नयान्तर, 12. नियमान्तर, 13. प्रमाणान्तर
भगवतीसूत्र में मोहनीय कर्म के परिणाम को बताते हुए कहा गया है कि मोहनीय कर्म के परिणामस्वरूप जीव आत्मा से अपक्रमण करता है अर्थात् ऊँचे गुणस्थान से नीचे गुण स्थान पर आ जाता है। क्योंकि अब उसे जिनेन्द्रों द्वारा कहा हुआ तथ्य रुचता नहीं हैं ।" कांक्षामोहनीय कर्म के स्वरूप, कारण, वेदन आदि की विवेचना के साथ-साथ भगवतीसूत्र में इससे बचने का भी सूत्र दिया गया है - तमेव सच्चं णीसकं जं जिणेहिं पवेइयं - (1.3.6) अर्थात् जो जिनेन्द्रों ने कहा है वही सत्य है। इस सूत्र को हृदयंगम करके व्यक्ति कांक्षामोहनीय कर्म के दुष्परिणामों से बच सकता है । वही सच्चा आराधक भी होता है ।
संदर्भ
1.
2.
3.
4.
5.
6.
7.
8.
9.
10.
11.
12.
13.
14.
15.
16.
17.
18.
19.
294
कीरइ जिएण उहिं, जेण तो भण्णउइ कम्मं - कर्मग्रंथ, 1.1 कर्मप्रकृति, नेमिचन्द्राचार्य, 6
शास्त्री, देवेन्द्रमुनि, जैन दर्शन स्वरूप और विश्लेषण, पृ. 429
आचारांग, मुनि मधुकर, 1.3.2.112 - 117, पृ. 94
रिपुव्वमकासि कम्मं, तहेव आगच्छति संपराए- सूत्रकृतांग, (नरकविभक्ति),
5.2.23
स्थांनांग, सम्पा., मुनि मधुकर, 4.299, 5.109-110 आदि
समवायांग, समवाय, 5, 14
उत्तराध्ययन, अध्ययन, 33, 34
व्या. सू., 17.4.3-19
वही, 6.3.5
वही, 1.3.10
वही, 1.2.2-3
नेरइयस्स वा तिरिक्खजोणियस्स..
जे कडे पाव कम्मे नत्थि णं तस्स अवेदइत्ता मोक्खो - वही, 1.4.6
वही, 9.32.53-57
भगवतीवृत्ति, अभयदेव, पत्रांक, 63
व्या. सू., 13.7.15-13
दुक्खी दुक्खणं फुडे, नो अदुक्खी दुक्खेणं फुडे- वही, 7.1.14
व्या. सू.,
6.3.2
प्रज्ञापनासूत्र, 23.1.292
भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन