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________________ वेदन किया है। उनके अनुसार जब कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन होता है मिथ्यात्व आ जाता है। इस संबंध में आचार्य महाप्रज्ञ जी का मन्तव्य है कि 'कांक्षामोहनीय का संबंध ज्ञानावरणीय कर्म से है, मोहनीय कर्म के प्रभेद रूप दर्शनमोहनीय से नहीं।' इसका मुख्य हेतु यह है कि कांक्षामोहनीय जिन कारणों से उत्पन्न होता है, उनमें कहीं भी तत्त्व-श्रद्धा विषयकांक्षा की चर्चा नहीं है। अपितु विभिन्न विचारों के प्रति होने वाली आकांक्षा ही अनुभव में आती है और यह एक प्रकार से मोह ही है। आचार्य भिक्षु के अनुसार ज्ञानमोह से तात्पर्य है ज्ञान में मूढ़ता उत्पन्न होना, अतः यह ज्ञानावरणीय कर्म का परिणाम है, मोहनीय कर्म का नहीं। भगवतीसूत्र' में कांक्षामोहनीय कर्म के स्वरूप पर विचार करते हुए कहा गया है कांक्षामोहनीय कर्म जीव द्वारा स्वकृत है। वह सर्व से सर्वकृत है अर्थात् समस्त आत्मप्रदेशों से समस्त कांक्षामोहनीय कर्म किया हुआ है। कांक्षामोहनीय कर्म की उदीरणा, गर्हा एवं संवर जीव स्वयं अपने आप करता है। कांक्षामोहनीय कर्म के कारणों की चर्चा में योग व प्रमाद को प्रमुख कारण माना गया है। निम्न संवाद दृष्टव्य है- कहं णं भंते! जीवा कंखामोहणिजं कम्मं बंधंति? गोयमा! पमादपच्चया जोगनिमित्तं च। (व्या. सू. 1.3.9) कांक्षामोहनीय कर्म के पाँच हेतु बताये गये हैं 1. शंका- तत्त्व के विषय में सन्देह, जैसे- पानी में जीव है या अजीव? इत्यादि। 2. कांक्षा- कुतत्त्व की आकांक्षा। 3. विचिकित्सा- धार्मिक आराधना के फल के विषय में सन्देह, उदाहरणार्थ- तपस्या करने से कर्ममुक्ति होगी या नहीं? 4. भेद- तत्त्व या सत्य के प्रति मति का द्वैत, अनिर्णायक स्थिति का होना। 5. कलुष- तत्त्व के प्रति निर्मल बुद्धि का अभाव उक्त पाँचों हेतुओं से समापन्न होकर जीव कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन करता है। कांक्षामोहनीय कर्म के विविध रूप कांक्षामोहनीय कर्म का वेदन अनेक रूपों में व्यक्त होता है। ग्रंथ में श्रमणनिग्रंथ के कांक्षामोहनीय कर्म के निमित्तभूत तेरह विषयों का उल्लेख किया गया है। कर्म सिद्धान्त 293
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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