SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 318
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लेश्या की परिभाषाओं से स्पष्ट है कि लेश्या वह है जो आत्मा को कर्मों से लिप्त करती है या जिसके द्वारा आत्मा बंधन में आती है । भगवतीसूत्र में लेश्या के दो भेद किये गये हैं 9 - 1. द्रव्यलेश्या, 2. भावलेश्या द्रव्यलेश्या गंध, वर्ण, रस व स्पर्श से युक्त होती है। जबकि भावलेश्या इनसे रहित होती है। इस संबंध में पं. सुखलाल जी ने प्रकाश डालते हुए कहा है कि भावलेश्या आत्मा का मनोभाव विशेष है, जो संक्लेश और योग से अनुगत है 17° यह मनोभाव क्रियाओं के रूप में जब बाह्य अभिव्यक्त होता है तब कर्म में रूपान्तरित हो जाता है । लेश्या के प्रकार- लेश्या छः प्रकार की बताई गई है। 71 1. कृष्णलेश्या, 2. नीललेश्या, 3. कापोतलेश्या, 4. तेजोलेश्या, 5. पद्मलेश्या, 6. शुक्ललेश्या इनके स्वभाव के वर्णन हेतु प्रज्ञापनासूत्र के लेश्यापद के द्वितीय उद्देशक का यहाँ निर्देश किया गया है। प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय उद्देशक में नरक आदि चार गतियों के जीवों में कितनी - कितनी लेश्याएँ होती हैं, इसका विस्तार से वर्णन हुआ है। अपेक्षा दृष्टि से लेश्या के अल्प - बहुत्व पर भी इसमें चिन्तन किया गया है। कांक्षामोहनीय कर्म जैनागमों में भी कर्म संबंधी अनेक समस्याओं पर विचार किया गया है, किन्तु कांक्षामोहनीय कर्म की चर्चा विशेषत: भगवतीसूत्र में ही दृष्टिगोचर होती है। इस चर्चा में कर्म संबंधी अनेक नये तथ्य सामने आते हैं। यद्यपि कर्म सिद्धान्त की उपर्युक्त चर्चा में इनमें से कुछ पर विचार किया गया है तथापि यहाँ कांक्षामोहनीय कर्म से क्या तात्पर्य है, उनके कारण, विविध रूप आदि की संक्षिप्त चर्चा अपेक्षित है। कांक्षामोहनीय कर्म का अर्थ एवं स्वरूप T जो कर्म जीव को मोहित करता है, मूढ़ बनाता है, उसे मोहनीय कर्म कहते हैं। मोहनीय कर्म के दो भेद हैं; चारित्र मोहनीय व दर्शन मोहनीय । यहाँ मोहनीय शब्द के आगे कांक्षा शब्द लगाया गया है । कांक्षामोहनीय का अर्थ दर्शन मोहनीय से है । वृत्तिकार के अनुसार कांक्षा का मूल अर्थ है- अन्य दर्शनों को स्वीकार करने की इच्छा करना । संशयमोहनीय, विचिकित्सामोहनीय, परपाखण्डप्रशंसामोहनीय आदि कांक्षामोहनीय के अन्तर्गत समाहित हो जाते हैं । 2 वृत्तिकार की तरह जयाचार्य ने भी कांक्षामोहनीय कर्म के वेदन का अर्थ मिथ्यात्व - मोहनीय भगवतीसूत्र का दार्शनिक परिशीलन 292
SR No.023140
Book TitleBhagwati Sutra Ka Darshanik Parishilan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTara Daga
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2012
Total Pages340
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy