________________
ज्ञानावरणीयादि आठ कर्मों की बंधस्थिति, अबाधाकाल व कर्म
निषेकका
बंधस्थिति - कर्मबंध होने तक वह जितने काल रहता है, उसे बंधस्थिति कहते हैं ।
अबाधाकाल- कर्मबंध से लेकर जब तक उस कर्म का उदय नहीं होता है तब तक के काल को अबाधाकाल कहते हैं ।
कर्मनिषेककाल- कर्म के अबाधाकाल के पूरा होने पर कर्म के वेदन करने के प्रथम समय से लेकर बंधे हुए कर्म के आत्मा के साथ रहने तक के काल को कर्मनिषेक काल कहते हैं ।
ज्ञानावरणीय कर्म की बंधस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त्त और उत्कृष्ट तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । उसका अबाधाकाल तीन हजार वर्ष का है । अबाधाकाल जितनी स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल है । दर्शनावरणीय व अन्तराय कर्म की बंधस्थिति आदि ज्ञानावरणीय के समान है। वेदनीय कर्म की जघन्य (बन्ध) स्थिति दो समय की है, उत्कृष्ट स्थिति ज्ञानावरणीय कर्म के समान तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम है । मोहनीय कर्म की बंधस्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त्त की और उत्कृष्ट 70 कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है। सात हजार वर्ष अबाधाकाल है । अबाधाकाल की स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल है । आयुष्यकर्म की बन्धस्थिति जघन्य अन्तमुहूर्त्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटि के त्रिभाग से अधिक तेतीस सागरोपम की है । इसका कर्मनिषेक काल (तेतीस सागरोपम का तथा शेष ) अबाधाकाल है । नामकर्म और गोत्र कर्म की बन्धस्थिति जघन्य आठ मुहूर्त्त की और उत्कृष्ट 20 कोड़ाकोड़ी सागरोपम की है । इसका दो हजार वर्ष का अबाधाकाल है । उस अबाधाकाल की स्थिति को कम करने से शेष कर्मस्थिति कर्मनिषेककाल होता है ।
1
श्या
I
जीव को प्रभावित करने वाले पुद्गलों के अनेक समूह हैं । उनमें से एक समूह का नाम लेश्या है । विभिन्न जैन ग्रंथों में लेश्या की विभिन्न परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं । आचार्य वीरसेन ने आत्मा और कर्म का संबंध कराने वाली प्रवृत्ति को लेश्या कहा है । 7 गोम्मटसार में कहा गया है कि जिसके सहयोग से आत्मा कर्मों में लिप्त होती है वह लेश्या है ।
कर्म सिद्धान्त
291