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को स्वीकार करते हए कहा गया है 'तपो हि स्वाध्यायः' स्वाध्याय स्वयं तप है। वस्तुतः स्वाध्याय अपने आप में एक महान तप है, जिसके द्वारा न केवल मन का मैल नष्ट होता है वरन् सदविचार व अच्छे संस्कार जागृत होते हैं। भगवतीसूत्र में स्वाध्याय के पाँच भेद बताये हैं;
1. वाचना, 2. प्रतिपृच्छना, 3. परिवर्तना, 4. अनुप्रेक्षा, 5. धर्मकथा वाचना- शास्त्र व उसका अर्थ पढ़ना, पढ़ाना वाचना स्वाध्याय है।
प्रतिपृच्छना- वाचना देते समय या लेते समय कोई शंका हो तो योग्य गुरु से पूछना प्रतिपृच्छना स्वाध्याय है।
परिवर्त्तना- पढे हए या सीखे हुए ज्ञान को बार-बार दोहराना ताकि वह विस्मृत ना हो जाय, परिवर्त्तना स्वाध्याय है।
अनुप्रेक्षा- सीखे हुए शास्त्र का अर्थ विस्मृत ना हो जाय, इसलिए उसका बार-बार मनन, चिन्तन, स्मरण करना अनुप्रेक्षा स्वाध्याय है।
धर्मकथा- उपर्युक्त चारों प्रकारों से शास्त्रों का अच्छा अध्ययन हो जाने पर श्रोताओं को शास्त्रों का व्याख्यान सुनाना, प्रवचन देना आदि धर्मकथा स्वाध्याय है।
स्थानांग में भी स्वाध्याय के इन पाँच भेदों का उल्लेख है, लेकिन वहाँ प्रतिपृच्छना के स्थान पर पृच्छना शब्द का प्रयोग है। ध्यान
जैन ग्रंथों में ध्यान की अनेक परिभाषाएँ प्राप्त होती हैं। चित्त को किसी भी विषय में एकाग्र करना, स्थिर करना, ध्यान है। आचार्य उमास्वाति ने मन की एकाग्रता को महत्त्व देते हुए ध्यान की परिभाषा इस प्रकार दी है; एकाग्र चिन्तन तथा शरीर, वाणी और मन का निरोध, ध्यान है। देवेन्द्रमुनिशास्त्री ने कहा है कि ध्यान में चेतना की वह अवस्था है, जो अपने आलम्बन के प्रति पूर्णतया एकाग्र होती है। एकाग्र चिन्तन ध्यान है। चेतना के विराट आलोक में चित्त विलीन हो जाता है, वह ध्यान है। ध्यान दो प्रकार का होता है; शुभ ध्यान व अशुभ ध्यान। शुभ ध्यान मोक्ष का कारण होता है। अशुभ ध्यान नरक व तिर्यंच का कारण होता है। अशुभ ध्यान अधोमुखी होता है तथा शुभ ध्यान ऊर्ध्वमुखी होता है। भगवतीसूत्र में ध्यान के चार प्रकार बताये गये हैं; 1. आर्तध्यान, 2. रौद्रध्यान, 3. धर्मध्यान, 4. शुक्लध्यान। ग्रंथ में इनके स्वरूप का विस्तृत वर्णन है। व्युत्सर्ग
व्युत्सर्ग शब्द 'वि' + उत्सर्ग से बना है, 'वि' उपसर्ग का अर्थ है, विशिष्ट तथा उत्सर्ग का अर्थ है, त्याग। व्युत्सर्ग का शाब्दिक अर्थ हुआ, विशिष्ट त्याग।
श्रमणाचार
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